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________________ ३. स्थिति बन्ध- कर्म-परमाणु कितने समय तक सत्ता में रहेंगे और कब अपना फल देना प्रारम्भ करेंगे, इस काल-मर्यादा का निश्चय स्थितिबन्ध करता है। यह समय मर्यादा का सूचक है। ४. अनुभाग बन्ध- यह कर्मों के बन्ध एवं विपाक की तीव्रता और मन्दता का निश्चय करता है। यह तीव्रता या गहनता (Intensity) का सूचक है। २. बन्धन का कारण-आस्रव जैन दृष्टिकोण- जैन दर्शन में बन्धन का कारण आस्रव है। आस्रव शब्द क्लेश या मल का बोधक है। क्लेश या मल ही कर्मवर्गणा के पुद्गलों को आत्मा के सम्पर्क में आने का कारण है। अतः जैन तत्त्वज्ञान में आस्रव का रूढ़ अर्थ यह भी हुआ कि कर्मवर्गणाओं का आत्मा में आना आस्रव है। अपने मूल अर्थ में आस्रव उन कारकों की व्याख्या करता है, जो कर्मवर्गणाओं को आत्मा की ओर लाते हैं और इस प्रकार आत्मा के बन्धन के कारण होते हैं। आस्रव के दो भेद हैं (१) भावास्रव और (२) द्रव्यासव। आत्मा की विकारी मनोदशा भावानव है और कर्मवर्गणाओं के आत्मा में आने की प्रक्रिया द्रव्यास्रव है। इस प्रकार भावास्रव कारण है और द्रव्यास्रव कार्य या प्रक्रिया है। द्रव्यास्रव का कारण भावास्रव है, लेकिन यह भावात्मक परिवर्तन भी अकारण नहीं है, वरन् पूर्वबद्ध कर्म के कारण होता है। इस प्रकार पूर्व-बन्धन के कारण भावानव और भावास्रव के कारण द्रव्यास्रव और द्रव्यास्रव से कर्म का बन्धन होता है। वैसे सामान्य रूप में 'मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियाँ ही आस्रव हैं। ये प्रवृत्तियाँ या क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं, शुभ प्रवृत्तियाँ पुण्य कर्म का आस्रव है और अशुभ प्रवृत्तियाँ पाप कर्म का आस्रव है। उन सभी मानसिक एवं कायिक प्रवृत्तियों का, जो आस्रव कही जाती हैं, विस्तृत विवेचन यहाँ सम्भव नहीं है। जैनागमों में इनका वर्गीकरण अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार से मिलता है। यहाँ तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर एक वर्गीकरण प्रस्तुत कर देना ही पर्याप्त होगा। कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया [81]
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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