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________________ अशुक्ल कर्म तथा गीता का अकर्म समान है। इसी प्रकार जैन दर्शन का पुण्य कर्म, बौद्ध दर्शन का कुशल (शुक्ल) कर्म तथा गीता का सकाम सात्विक कर्म भी समान है। जैन दर्शन का पाप कर्म बौद्ध दर्शन का अकुशल (कृष्ण) कर्म तथा गीता का विकर्म है। पाश्चात्य नैतिक दर्शन की दृष्टि से भी कर्म तीन प्रकार के हैं- १. अतिनैतिक, २. नैतिक और ३. अनैतिक। जैन दर्शन का ईर्यापथिक कर्म अतिनैतिक कर्म है, पुण्य कर्म नैतिक कर्म है, और पापकर्म अनैतिक कर्म है। गीता का अकर्म अतिनैतिक शुभ कर्म या कर्म नैतिक और विकर्म अनैतिक है। बौद्ध दर्शन में अनैतिक, नैतिक और अतिनैतिक कर्म को क्रमशः अकुशल, कुशल और अव्यक्त कर्म अथवा कृष्ण, शुक्ल और अकृष्ण कर्म कहा गया है। इन्हें निम्न तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है:कर्म पाश्चात्य जैन बौद्ध गीता आचारदर्शन १. शुद्ध अतिनैतिककर्म ईर्यापथिककर्म अव्यक्त कर्म अकर्म २. शुभ नैतिक कर्म पुण्य कर्म कुशल (शुक्ल) कर्म कर्म ३. अशुभ अनैतिक कर्म पाप कर्म अकुशल (कृष्ण) कर्म विकर्म आध्यात्मिक या नैतिक पूर्णता के लिए हमें क्रमशः अशुम कर्मों से शुभ कर्मों की और शुभ कर्मों से, शुद्ध कर्मों की ओर बढ़ना होगा। आगे हम इसी क्रम से उन पर थोड़ी अधिक गहराई से विवेचन करेंगे। २. अशुभ या पाप कर्म जैन आचार्यों ने पाप की यह परिभाषा की है कि वैयक्तिक सन्दर्भ में जो आत्मा को बन्धन में डाले, जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनन्द का शोषण करे और आत्मशक्तियों का क्षय करे, वह पाप है।' सामाजिक सन्दर्भ में जो परपीड़ा या दूसरों के दुःख का कारण है, वह पाप है (पापाय परपीडन)। वस्तुतः जिस विचार एवं आचार से अपना और पर का अहित हो और जिससे अनिष्ट फल की प्राप्ति हो वह [50] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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