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________________ ८०/३) का उद्धरण देते हुए तिलक भी लिखते हैं कि न केवल हमें, किन्तु कभी-कभी हमारे नाम रूपात्मक देह से उत्पन्न लड़कों और हमारे नातियों तक को कर्मफल भोगने पड़ते हैं। इस प्रकार हिन्दू विचारणा सभी शुभाशुभ कर्मों के फल संविभाग को स्वीकार करती है। तुलना एवं समीक्षा बौद्ध और हिन्दू परम्परा में महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि हिन्दू धर्म में मनुष्य के शुभ और अशुभ कर्मों का फल उसके पूर्वजों एवं सन्तानों को मिल सकता है, जब कि बौद्ध धर्म में केवल पुण्य कर्मों का फल ही प्रेतों को मिलता है। हिन्दू धर्म में पुण्य और पाप दोनों कर्मों का फल संविभाग स्वीकार किया गया है, जब कि बौद्धधर्म का सिद्धान्त यह है कि कुशल (पुण्य) कर्म का ही संविभाग हो सकता है, अकुशल (पाप) कर्म का नहीं। मिलिन्दप्रश्न में दो कारणों से अकुशल कर्म को संविभाग के अयोग्य माना है १. पाप कर्म में प्रेत की अनुमति नहीं है, अतः उसका फल उसे नहीं मिल सकता। २. अतः उसका संविभाग नहीं हो सकता किन्तु कुशल विपुल होता है अतः उसका संविभाग हो सकता है। ___ लेकिन विचारदर्शन देखें तो यह तर्क औचित्यपूर्ण नहीं है। यदि अनुमति के अभाव में अशुभ का फल प्राप्त नहीं होता है तो फिर शुभ का फल कैसे प्राप्त हो सकता है? दूसरे यह कहना कि अकुशल परिमित है, ठीक नहीं है। इस कथन का क्या आधार है कि अकुशल (पाप) परिमित है? दूसरे, परिमित का भी भाग होना संभव है। व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने पर हम यह मान सकते हैं कि व्यक्ति के शुभाशुभ आचरण का प्रभाव केवल परिजनों पर ही नहीं, समाज पर भी पड़ता है। वर्तमान वैज्ञानिक युग में भी मनुष्य की शुभाशुभ क्रियाओं से समाज एवं भावी पीढ़ी प्रभावित होती है। एक मनुष्य की गलत नीति का परिणाम समूचे राष्ट्र और राष्ट्र की भावी पीढ़ी को भुगतना पड़ता है, यह एक स्वयंसिद्ध तथ्य है। ऐसी स्थिति में कर्म फल का संविभाग सिद्धान्त कर लेने पर [32] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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