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________________ १२. कर्मफल संविभाग कर्म - सिद्धान्त के सन्दर्भ में यह विचारणीय प्रश्न है कि क्या एक व्यक्ति अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल दूसरे व्यक्ति को दे सकता है अथवा नहीं दे सकता? क्या व्यक्ति अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का ही भोग करता है अथवा दूसरों के द्वारा किये हुए शुभाशुभ का फल भी उसे मिलता है? इस सन्दर्भ में समालोच्य आचार दर्शनों के दृष्टिकोण पर भी विचार कर लेना आवश्यक है । जैन दृष्टिकोण जैन विचारणा के अनुसार प्राणी के शुभाशुभ कर्मों के प्रतिफल में कोई भागीदार नहीं बन सकता, जो व्यक्ति शुभाशुभ कर्म करता है वही उसका फल प्राप्त करता है । उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट विधान है संसारी जीव स्व एवं पर के लिए जो साधारण कर्म करता है उस कर्म के फल भोग के समय वे बन्धु बान्धव (परिजन) हिस्सा नहीं लेते । 1 इसी ग्रन्थ में प्राणी की अनाथता का निर्णय करते हुए यह बताया गया है कि न तो माता-पिता और पुत्र-पौत्रादि ही प्राणी का हिताहित करने से समर्थ है। 2 भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर से जब यह प्रश्न किया गया कि प्राणी स्वकृत सुख-दुःख का भोग करते हैं या परकृत सुख-दुःख का भोग करते है? तो महावीर का स्पष्ट उत्तर था कि प्राणी स्वकृत सुख - दुःख का भोग करते हैं, परकृत का नहीं 43 इस प्रकार जैन विचारणा में कर्मफल संविभाग को अस्वीकार किया गया है। बौद्ध दृष्टिकोण बौद्ध दर्शन में बोधिसत्व का आदर्श कर्मफल संविभाग के विचार को पुष्ट करता है । बोधिसत्व तो सदैव यह कामना करते हैं कि उसके कुशल कर्मों का फल विश्व के समस्त प्राणियों को मिले, फिर भी बौद्ध दर्शन यह मानता है कि केवल शुभकर्मों में ही दूसरे को सम्मिलित किया जा सकता है। बौद्ध दृष्टिकोण के सम्बन्ध में आचार्य नरेन्द्रदेव लिखते हैं [30] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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