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________________ कारण ही आचार, विचार एवं स्वरूप की यह विविधता है । इस प्रकार बौद्ध धर्म ने कर्म को कारण मान कर प्राणियों की हीनता एवं प्रणीतता का उत्तर तो बड़े ही स्पष्ट रूप में दिया है, फिर भी यह कर्म का नियम किस प्रकार अपना कार्य करता है, इसका काल स्वभाव आदि से क्या सम्बन्ध है, इसके बारे में उसमें इतना अधिक विस्तृत विवेचन नहीं है जितना कि जैन दर्शन में है । जैन दृष्टिकोण जैन दर्शन में भी कारणता सम्बन्धी इन विविध सिद्धान्तों की समीक्षा की गयी । सूत्रकृतांग एवं उसके परवर्ती जैन साहित्य में इनमें से अधिकांश विचारणाओं की विस्तृत समीक्षा उपलब्ध होती है । यहाँ विस्तार में न जाकर उन समीक्षाओं की सारभूत बातों को प्रस्तुत करना ही पर्याप्त है । सामान्यतया व्यक्ति की सुख दुःखात्मक अनुभूति का आधार काल नहीं हो सकता, क्योंकि यदि काल ही एक मात्र कारण है तो एक ही समय में एक व्यक्ति सुखी और दूसरा व्यक्ति दुःखी नहीं हो सकता। फिर अचेतन काल हमारी सुख दुःखात्मक चेतन अवस्थाओं का कारण कैसे हो सकता है? यदि यह मानें कि व्यक्ति की सद्-असद् प्रवृत्तियों का कारण या प्रेरक तत्त्व स्वभाव है और हम उसका अतिक्रमण नहीं कर सकते हैं, तो नैतिक सुधार, नैतिक प्रगति कैसे होगी? दस्यु अंगुलिमाल, भिक्षु अंगुलिमाल में नहीं बदल सकेगा। नियतिवाद को स्वीकार करने पर भी जीवन में प्रयत्न या पुरुषार्थ का कोई मूल्य नहीं रह जायेगा । इसी प्रकार ईश्वर को ही प्रेरक या कारण मानने पर व्यक्ति की शुभाशुभ प्रवृत्तियों के लिए प्रशंसा या निन्दा का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा । यदि ईश्वर ही वैयक्तिक विभिन्नताओं का कारण है तो फिर वह न्यायी नहीं कहा जा सकेगा । पूर्वनिर्देशित इन विभिन्न वादों में कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद और ईश्वरवाद इसलिए भी अस्वीकार्य है कि इनमें कारण को बाह्य माना गया, लेकिन कारण - प्रत्यय को जीवात्मा से बाह्य मानने पर निर्धारणवाद मानना [ 10 ] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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