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________________ भगवान् बुद्ध के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, "अभय! उन भगवान् (बुद्ध) के द्वारा तीन निर्जरा- विशुद्धियाँ सम्यक् प्रकार से कही गयी हैं। हे अभय! भिक्षु सदाचारी होता है, प्रातिमोक्ष- शिक्षा-पदों के नियम का सम्यक् पालन करने वाला होता है। इस प्रकार वह शीलसम्पन्न भिक्षु काम-भोगों से दूर हो चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है। इस प्रकार वह शील-सम्पन्न भिक्षु आस्रवों का क्षय कर अनास्रवचित्त-विमुक्ति, प्रज्ञा-विमुक्ति को इसी शरीर में जानकर, साक्षात् कर, प्राप्त कर, विहार करता है। वह नया कर्म नहीं करता और पुराने कर्मों (के फल) को भोगकर समाप्त कर देता है। यह सांदृष्टिक निर्जरा है, अकालिका (देश और काल की सीमाओं से परे)। 23 इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध-परम्परा निर्जरा के प्रत्यय को स्वीकार तो कर लेती है, लेकिन उसके तपस्यात्मक पहलू के स्थान पर उसके चारित्रविशुद्ध्यात्मक तथा चित्त-विशुद्ध्यात्मक पहलू पर ही अधिक जोर देती है। ९. गीता का दृष्टिकोण ___ यद्यपि गीता में निर्जरा शब्द का प्रयोग नहीं है, तथापि जैन-दर्शन निर्जरा शब्द का जिस अर्थ में प्रयोग करता है, वह अर्थ गीता में उपलब्ध है। जैन-दर्शन में निर्जरा शब्द का अर्थ पुरातन कर्मों को क्षय करने की प्रक्रिया है। गीता में भी पुराने कर्मों को क्षय करने की प्रक्रिया का निर्देश है। गीता में ज्ञान को पूर्व-संचित कर्म को नष्ट करने का साधन कहा गया है। गीताकार कहता है कि जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि सभी पुरातन कर्मों को नष्ट कर देती है। हमें यहाँ जैन-दर्शन और गीता में स्पष्ट विरोध प्रतिभासित होता है। जैनविचारणा तप पर जोर देती है और गीता ज्ञान पर, लेकिन अधिक गहराई में जाने पर यह विरोध बहुत मामूली रह जाता है, क्योंकि जैनाचार-दर्शन में तप का मात्र शारीरिक या बाह्य पक्ष ही स्वीकार नहीं किया गया है, वरन् उसका ज्ञानात्मक एवं आंतरिक पक्ष भी स्वीकृत है। जैन-दर्शन में तप के बन्धन से मुक्ति की ओर (संवर और निर्जरा) [ 135]
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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