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________________ भी प्राणी को दुःख देना, २. चिन्तित बनाना, ३. शोकाकुल बनाना, ४. रुलाना, ५. मारना और ६. प्रताड़ित करना, इन छः क्रियाओं की मंदता और तीव्रता के आधार पर इनके बारह प्रकार हो जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार १. दुःख, २. शोक, ३. ताप, ४. आक्रान्दन, ५. वध और ६. परिदेवन ये छः असातावेदनीय कर्म के बन्ध के कारण हैं जो 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा से १२ प्रकार के हो जाते हैं। स्व एवं पर की अपेक्षा पर आधारित तत्त्वार्थसूत्र का यह दृष्टिकोण अधिक संगत है। कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय के बन्ध के कारणों के विपरीत गुरु का अविनय, अक्षमा, क्रूरता, अविरति, योगाभ्यास नहीं करना, कषाययुक्त होना तथा दान एवं श्रद्धा का अभाव असातावेदनीय कर्म के कारण माने गये हैं। इन क्रियाओं के विपाक के रूप में आठ प्रकार की दुःख संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं- १. कर्ण-कटु, कर्कश स्वर सुनने को प्राप्त होते हैं, २. अमनोज्ञ एवं सौन्दर्यविहीन रूप देखने को प्राप्त होता है, ३. अमनोज्ञ गन्धों की उपलब्धि होती है, ४. स्वादविहीन भोजनादि मिलता है, ५. अमनोज्ञ, कठोर एवं दुःखद संवेदना उत्पन्न करने वाले स्पर्श की प्राप्ति होती है, ६. अमनोज्ञ मानसिक अनुभूतियों का होना, ७. निन्दा-अपमानजनक वचन सुनने को मिलते हैं और ८. शरीर में विविध रोगों की उत्पत्ति से शरीर को दु:खद संवेदनाएँ प्राप्त होती है।" ४. मोहनीय कर्म जैसे- मदिरा आदि नशीली वस्तु के सेवन से विवेक-शक्ति कुंठित हो जाती है, उसी प्रकार जिन कर्म-परमाणुओं से आत्मा की विवेक-शक्ति कुंठित होती है और अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति होती है, उन्हें मोहनीय (विमोहित करने वाले) कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं- दर्शनमोह और चारित्रमोह। मोहनीय कर्म के बन्ध के कारण- सामान्यतया मोहनीय कर्म का बन्ध छः कारणों से होता है- १. क्रोध, २. अहंकार, ३. कपट, ४. लोभ, [98] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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