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________________ दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध के कारण- ज्ञानावरणीय कर्म के समान ही छः प्रकार के अशुभ आचरण के द्वारा दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है- (१) सम्यक् दृष्टि की निन्दा (छिद्रान्वेषण) करना अथवा उसके प्रति अकृतज्ञ होना, (२) मिथ्यात्व या असत् मान्यताओं का प्रतिपादन करना, (३) शुद्ध दृष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक बनना, (४) सम्यक्दृष्टि का समुचित विनय एवं सम्मान नहीं करना, (५) सम्यक्दृष्टि पर द्वेष करना, (६) सम्यक्दृष्टि के साथ मिथ्याग्रह सहित विवाद करना। दर्शनावरणीय कर्म का विपाक- उपर्युक्त अशुभ आचरण के कारण आत्मा का दर्शन गुण नौ प्रकार से कुंठित हो जाता है-39 १. चक्षुदर्शनावरण- नेत्र-शक्ति का अवरुद्ध हो जाना। २. अचक्षुदर्शनावरण- नेत्र के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों की सामान्य अनुभवशक्ति का अवरुद्ध हो जाना। ३. अवधिदर्शनावरण- सीमित अतीन्द्रिय दर्शन की उपलब्धि में बाधा उपस्थित होना। ४. केवल दर्शनावरण- परिपूर्ण दर्शन की उपलब्धि का नहीं होना। ५. निद्रा- सामान्य निद्रा। ६. निद्रानिद्रा- गहरी निद्रा। ७. प्रचला- बैठे-बैठे आ जाने वाली निद्रा। ८. प्रचलाप्रचला- चलते-फिरते भी आ जाने वाली निद्रा। स्त्यानगृद्धि- जिस निद्रा में प्राणी बड़े-बड़े बल-साध्य कार्य कर डालता है। अन्तिम दो अवस्थाएँ आधुनिक मनोविज्ञान के द्विविध व्यक्तित्व के समान मानी जा सकती हैं। उपर्युक्त पाँच प्रकार की निद्राओं के कारण व्यक्ति की सहज अनुभूति की क्षमता में अवरोध उत्पन्न हो जाता है। [96] जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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