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________________ करेंगे। साथ ही क्रिया का प्रकार ही कर्म- पुद्गलों की प्रकृति का निर्धारण करता है । यद्यपि यह सही है कि क्रिया के स्वरूप का निर्धारण कषायों पर निर्भर होता है और अन्तिम रूप में तो कषाय ही कर्म-पुद्गलों की प्रकृति का निश्चय करते हैं, लेकिन निकटवर्ती कारण की दृष्टि से क्रिया (योग) ही कर्म - पुद्गलों के बन्ध की प्रकृति का निश्चय करती है। इस प्रकार जैन दर्शन में कषाय या राग भाव का सम्बन्ध बन्धन की समयावधि (स्थिति) तथा तीव्रता ( अनुभाग ) से होता है जबकि क्रिया (योग) का सम्बन्ध बन्धन की मात्रा (प्रदेश) और गुण (प्रकृति) से होता है। ४. अष्टकर्म और उनके कारण जिस रूप में कर्मपरमाणु आत्मा की विभिन्न शक्तियों के प्रकटन का अवरोध करते हैं और आत्मा का शरीर से सम्बन्ध स्थापित कराते हैंउनके अनुसार उनके विभाग किये जाते हैं । जैनदर्शन के अनुसार कर्म आठ प्रकार के हैं - १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अन्तराय 134 १. ज्ञानावरणीय कर्म जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को ढँक देते हैं, उसी प्रकार जो कर्मवर्गणाएँ, आत्मा की ज्ञानशक्ति को ढंक देती हैं और सहज ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनती हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म कही जाती हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धन के कारण- जिन कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म के परमाणु आत्मा से संयोजित होकर ज्ञान-शक्ति को कुंठित करते हैं, वे छ: हैं । १. प्रदोष - ज्ञानी का अवर्णवाद ( निन्दा) करना एवं उसके अवगुण निकालना। २. निह्नव- ज्ञानी का उपकार स्वीकार न करना अथवा किसी विषय को जानते हुए भी उसका अपलाप करना। ३. अन्तराय - ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनना, ज्ञानी एवं ज्ञान के साधन पुस्तकादि को नष्ट करना । ४. मात्सर्य - विद्वानों के प्रति द्वेषबुद्धि रखना, ज्ञान के साधन पुस्तक आदि में अरुचि रखना । ५. असादना - जैन, बौद्ध और गीता में कर्म सिद्धान्त [94]
SR No.032591
Book TitleJain Bauddh Aur Gita Me Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2016
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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