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________________ ८१२ ] [ महामणि चिंतामणि गौतमस्वामी का पूरा नाम 'इन्द्रभूति' गौतम था । वे उच्च कुलीय गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे । जैनागम में उनका सर्वप्रथम आविर्भाव होता है मध्यमपावा में धनाढ्य ब्राह्मण सोमिल के विराटयज्ञ के आयोजन में। भगवान महावीर को ऋजुवालिका नदी के तट पर केवलज्ञान उत्पन्न हो गया था। वे सर्वज्ञ, वीतराग एवं अर्हन्त बन गये थे । 'तीर्थंकर' बनने के लिये तीर्थ (साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विघ संघ) स्थापना का सुअवसर जानकर रात्रि में विहार कर भगवान मध्यमपावा में पधारे थे। समवसरण निर्मित हुआ । नर-नारियों के झुंड के झुंड समवसरण (धर्मसभा) की ओर जाने लगे । देवदेवियों का आगमन हुआ। आकाश प्रदीप्त हुआ, दिशाएँ कोलाहल से भर गईं। आर्य सोमिल का विराट यज्ञ शुरू हो रहा था । इन्द्रभूति को अपने ज्ञान का, विद्याओं का बड़ा अभिमान था । उनके १० सहयोगी भी ज्ञानी, तपस्वी, तेजस्वी एवं प्रचुर शिष्य-संपदा के स्वामी थे । उन ११ पंडितों के कुल ४४०० शिष्य थे । इन्द्रभूति गौतम ने समझा - ये नरनारी, देवदेवी उनके महान यज्ञ में दर्शक बनकर आ रहे हैं। पर, यह क्या ? यह झुंड तो आगे बढे ही जा रहे हैं। यह कौन इन्द्रजालिया आ गया है ? लोग सम्मोहित से कैसे खिंचे जा रहे हैं, जैसे उन पर वशीकरण कर दिया गया है। पूछने पर पता चला कि अर्हत महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। वे चरम तीर्थंकर हैं। उनका समवसरण लगा है। ये सारे के सारे भगवान के दर्शनों को एवं उनका प्रवचन सुनने जा रहे हैं । इन्द्रभूति को आश्चर्य हुआ, आशंका हुई, उनके मन में एक अज्ञात भय की उत्पत्ति हुई । 'जीव (आत्मा) है या नहीं ?" यह एक शंका कुंडली मारे इन्द्रभूति के मनोमस्तिष्क में बैठी हुई थी । क्या मेरा पांडित्य विगलित हो कर बह जायगा ? मैं महानतम पंडित गिना जाता हूँ। मैने भारत भर के वादियों में विजय प्राप्त की है। यह कौन सर्वज्ञ, कौन अर्हन्त, कौन तीर्थंकर आ गया ? मेरे विराट्-भव्य यज्ञ में न आ कर लोग वहाँ कैसे जा रहे हैं ? कौन है वह ? वह सिद्धार्थ राजा का पुत्र है। सच है, लोग भी श्रीमंतों और राजाओं को ही पूजते हैं, मानते हैं । नहीं-नहीं, उसने तो १२ ॥ वर्षों पहले संसार का त्याग कर दिया है। सुनते हैं कि इन १२|| वर्षों में बहुत कष्ट सहे हैं उसने । बड़ी तपस्या की है, एकाग्र ध्यान किया है। अनजान देशों में, अनार्य देशों में विचरण किया है, ममत्व को पूर्णतया त्याग दिया है। शरीर की, देह की किंचित भी सुध उसने नहीं रखी। तो क्या वह सचमुच सर्वज्ञ हो गया है ? हे भगवन ! क्या मेरा गौरव, मेरी प्रतिष्ठा, मेरा ठाठबाट- आडंबर, मेरी प्रसिद्धि, मेरा नाम क्या सब मिट्टी में मिल जायेंगे? मैं जनतादनार्दन को, अपने ५०० शिष्यों को कैसे मुँह दिखा पाऊँगा ?" इन्द्रभूति गौतम के मन में शंका-कुशंकाओं का पार नहीं है। बड़ी आकुलता है, अन्तर्द्वन्द्व (अंतस् में घनघोर युद्ध) चल रहा है। उनके अस्तित्व, उनकी गरिमा, उनकी प्रसिद्धि को आज भयानक संकट उत्पन्न हो गया है । क्या होगा ? यज्ञ का आयोजन धरा रह गया। कुछ सूझता नहीं है । इन्द्रभूति निस्तेज - निष्प्रभ हो गये हैं । फिर अहंकार सिर उठाता है- “छि ! मैं तो व्यर्थ ही में डर गया । मैंने आज की उपलब्ध सब विद्यायें सीखी हैं। मैं पंडितशिरोमणी, वादियों में सिरमौर हूँ । भारतभर में मेरी प्रसिद्धि है। चलूँ, वाद करके उसको पराभूत - पराजित कर दूँ । मुझ जैसे वाद- शिरोमणि के आगे वह नौसिखिया कैसे ठहर पाता है - देखूँ! एक चुटकी में उसे पराजित न कर दूँ तो मेरा नाम इन्द्रभूति नहीं । ”
SR No.032491
Book TitleMahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Devluk
PublisherArihant Prakashan
Publication Year
Total Pages854
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size42 MB
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