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________________ ७६४ ] [ महामणि चिंतामणि 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 कर ली। किसी समय भगवान महावीर चम्पानगरी पधार रहे थे। तभी शाल और महाशाल ने स्वजनों को प्रतिबोधित करने जाने की इच्छा व्यक्त की। प्रभु की आज्ञा से गौतमस्वामि के नेतृत्व में श्रमण शाल और महाशाल पृष्ठचम्पा गये। वहाँ के राजा गागलि, उसके मातापिता यशस्वती और पिढर को प्रतिबोधित कर दीक्षा प्रदान की। पश्चात् वे सब चल पड़े प्रभु की सेवा में। मार्ग में चलते चलते शाल और महाशाल गौतमस्वामि के गुणों का चिन्तन करते हुए और गागलि तथा उसके मातापिता शाल एवं महाशाल मुनियों की परोपकारिता का चिन्तन करते हुए अध्यवसायों की शुद्धि के कारण कैवल्यता को प्राप्त हो गये। सभी भगवान के पास पहुंचे। ज्यों ही शाल और महाशालादि पाँचों मुनि केवलियों की पर्षदा में जाने लगे तो गौतम ने उन्हें रोकते हुए कहा-"पहले त्रिलोकीनाथ को वन्दना करो"। उसी क्षण भगवानने कहा-“गौतम ! ये केवली हो चुके हैं अतः इनकी आशातना मत करो।" गौतम ने उन से क्षमायाचना की। किन्तु मानस अधीर आकुलव्याकुल संदेहों से भर गया। सोचने लगे-मेरे द्वारा दीक्षित अधिकांश शिष्य केवलज्ञानी हो चुके हैं। परन्तु मुझे अभी तक केवलज्ञान नहीं हुआ। क्या मैं सिद्धपद प्राप्त नहीं कर पाऊँगा? एक बार प्रभुमुख से अष्टापद तीर्थ की महिमा का वर्णन हुआ प्रभु ने कहा-जो साधक स्वयं की आत्मलब्धि के बल पर अष्टापद पर्वत पर जाकर, चैत्यस्थ जिनबिम्बों की वन्दना कर एक रात्रि वहाँ निवास करता है वह निश्चयतः मोक्ष का अधिकारी बनता है। और इसी भव में मोक्ष जाता है। गणधर गौतम उपदेश के समय कहीं बाहर गये थे। लौटने पर उन्हें यह वाणी देवमुख से सुनने को मिली। गौतम को मार्ग मिल गया। भगवान से अनुमति ले कर अष्टापद यात्रार्थ गये। गुरु गौतम आत्मसाधना से प्राप्त चारणलब्धि के बल पर वायुवेग से अष्टापद पर पहुंचे। इधर कौडिन्य, दिन्न और शैवाल नाम के तीन तापस भी मोक्षप्राप्ति की निश्चयता हेतू अपने अपने ५००-५०० शिष्यों के साथ कठोर तप सहित अष्टापद चढ़ने का प्रयत्न कर रहे थे। कौडिन्य उपवास के अनन्तर पारणा, फिर उपवास करता था। पारणा में कंदमूल आदि का आहार ग्रहण करता था। वह अष्टापद पर्वत की आठ सोपानों में से एक पहली ही सोपान चढ़ पाया था। दिन्न तापस दो-दो उपवास का तप करता था। पारणे में नीचे पड़े पत्ते ही खाकर रहता था। वह अष्टापद की दो सोपान ही चढ़ पाया था। शैवाल तापस तीन-तीन उपवास की तपस्या करता था। पारणे में सूखी शेवाल खाकर रहता था। वह अष्टापद की तीन सोपान ही चढ़ पाया था। पर्वत की आठ मेखलायें थीं। अंतिम मेखला तक कैसे पहुँचना-वे अपने १५०० शिष्यों सहित इसी चिन्ता में लगे रहते थे। __उन्होंने जब मदमस्त हाथी की तरह चाल वाले दृढ़काय गौतमस्वामि को इस तरह सहज में अष्टापद पर अपनी आँखो से चढ़ते देखा तो विचारने लगे- हमारी इतनी विकट तपस्या और परिश्रम भी सफल नहीं हुए-जब कि यह महापुरुष तो खेल ही खेल में ऊपर पहुँच गये। निश्चय ही इस महायोगी के पास कोइ महाशक्ति होनी चाहिये। उन्होंने निश्चय किया कि ज्यों ही ये महर्षि
SR No.032491
Book TitleMahamani Chintamani Shree Guru Gautamswami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Devluk
PublisherArihant Prakashan
Publication Year
Total Pages854
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size42 MB
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