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________________ जैन-विभूतियों 23 गणेश प्रसाद उन्हीं के सान्निध्य में आगम ग्रंथों, व्याकरण आदि के अध्ययन में लग गए। मुंबई का पानी रास न आने से वे जयपुर आए। यहाँ वीरेश्वर शास्त्री के सान्निध्य में उन्होंने तत्त्वार्थ सूत्र, सर्वार्थ सिद्धि आदि जैन ग्रंथों का अध्ययन किया। इस बीच उनकी पत्नि का देहांत हो गया। गणेश प्रसाद शास्त्रों के अध्ययन में लगे रहे। सन् 1904 में वे संस्कृत विद्या के धाम बनारस पहुँचे। इस वक्त उनकी उम्र 30 वर्ष हो गई थी। धर्म-दर्शन की प्यास उन्हें हर घाट पर ले गई। बनारस में 'क्वीन्स कॉलेज' के न्यायशास्त्र के व्याख्याता पं. जीवनाथ मिश्रा से गणेशप्रसाद ने शिष्य बनाने की विनती की। मिश्राजी को जब मालूम हुआ कि गणेशप्रसाद जन्म से वैष्णव एवं आस्था से जैन हो गये हैं तो वे क्रोधित हो उठे, उन्होंने गणेशप्रसाद को घर से निकाल दिया। उन्होंने जैनियों को न्याय न सिखाने का प्रण ले रखा था। गणेशप्रसाद को बहुत बुरा लगा। सुपार्श्वनाथ एवं पार्श्वनाथ की जन्मभूमि में 'तत्त्वज्ञान' के अध्ययन की सुचारु व्यवस्था हेतु गणेशप्रसाद संकल्पित हो उठे। आत्मीय चमनलाल के एक रुपया अवदान से उन्होंने 64 पोस्टकार्ड खरीदे एवं 64 धर्मप्रेमियों को पत्र लिखकर अपनी. योजना से अवगत कराया। सन् 1978 में दानवीर सेठ मानिकचन्द जे.पी. के हाथों भदौनी घाट पर स्थित मंदिर परिसर में "स्याद्वाद विद्यालय' की नींव पड़ी। बाबा भागीरथ की देखरेख में विद्यालय संचालित हुआ। कालांतर में यह जैन समाज का सर्वोपरि अध्ययन केन्द्र बन गया। थोड़े समय बाद पं. मदनमोहन मालवीय के प्रयत्न से बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। तब वहाँ 'जैन दर्शन विभाग' खुलवाने का श्रेय गणेश प्रसादजी को ही है। सन् 1911 में गणेशप्रसादजी के प्रयत्नों से सागर में "सतर्क सुधातरंगिणी पाठशाला'' की स्थापना हुई जो अब "गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत विद्यालय'' नाम से प्रसिद्ध है। गणेशप्रसाद एवं उनकी धर्ममाता चिरोंजी बाई वहीं रहने भी लगे। शरीर पर मात्र एक धोती और दुपट्टा उनका पहिरान रहा। यहाँ उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया एवं 'वर्णीजी' के नाम से विख्यात हो गए।
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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