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________________ 332 जैन-विभूतियाँ 82. सेठ माणिकचन्द जे.पी. (1851-1914) जन्म : सन् 1851 पिताश्री : हीराचन्द जौहरी (हूमड़) माताश्री : बिजली बाई उपाधि : जैन कुल भूषण (1961) दिवंगति : सन् 1914, मुम्बई MMIT A . इस शताब्दी में अनेक जैन श्रेष्ठि हुए हैं, जिन्होंने अपनी धन-सम्पदा का उपयोग मुक्त हस्त समाज की उन्नति एवं संस्कृति को श्रेष्ठतम बनाने में खर्च किया। ऐसा ही अनुकरणीय जीवन जीने वाले थे श्री माणिकचन्द हीराचन्द जौहरी। सेठ माणिकचन्द जैसे निराभिमानी, उदार, निर्व्यसनी, कर्मयोगी एवं धर्मप्रेमी विरल होते हैं। बहुधा लोग धन सम्पदा को अपना एवं अपने पुरखों का पुण्य फल मानकर उसे अपने एवं अपने परिवार की स्वार्थसिद्धि, विलासितापूर्ण संसाधन जुटाने एवं उनका अतिशय उपभोग करने में ही खर्च करते हैं। सेठ माणकचन्द के पितामह गुमानजी राजस्थान के उदयपुर संभाग के भींडर ग्राम के निवासी थे। अपने व्यापार के विकासार्थ संवत् 1840 (सन् 1783) में वे सूरत आ बसे। उनका सितारा चमका। उन्हें आर्थिक सुदृढ़ता मिली। बीसा हूमड़ जाति के मंत्रेश्वर गोत्रधारी गुमानजी को पुत्र लाभ हुआ। सुपुत्र हीराचन्द बड़े होकर व्यवसाय में पिता के सहयोगी बने। संवत् 1908 हीराचन्द जी की धर्मपत्नि बीजल बाई की कुक्षि से एक बालक का जन्म हुआ। बालक की जन्म पत्रिका में बालक के ऐश्वर्यशाली एवं यशस्वी बनने की घोषणा थी। बालक सुन्दर एवं चित्ताकर्षक था, नामकरण हुआमाणिकचन्द। पिता उन्हें मन्दिर ले जाते । धर्मे शिक्षा उनके विकास का सोपान बनी। जब वे मात्र आठ वर्ष के थे माता का देहांत हो गया। संवत् 1920 में हीराचन्दजी मुंबई आ गए। तब माणिकचन्दजी मात्र 12 वर्ष के थे। वे एक सराफ की दूकान पर हिसाब किताब सीखने लगे। उनके अन्य
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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