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________________ जैन- विभूतियाँ पार्श्वनाथ विद्यापीठ में विलय हो गया है, परन्तु प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद में अब भी कार्यरत है। 302 लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर का जैन विद्या के अध्ययन, संशोधन, प्रकाशन आदि के क्षेत्र में आज जो गौरवशाली स्थान है उसके मूल में पण्डित दलसुखभाई का अविस्मरणीय योगदान है। पण्डित जी ने न केवल भारत अपितु विदेशों में भी अध्यापन कार्य किया। सन् 1966-67 में उन्हें एक वर्ष के लिए टोरन्टो विश्वविद्यालय, कनाडा में भारतीय दर्शन के प्राध्यापक के रूप में नियुक्त किया गया । पं. दलसुखभाई की उल्लेखनीय साहित्य सेवा के उपलक्ष्य में उन्हें राष्ट्रपति द्वारा सर्टीफकेट ऑ ऑनर एवं भारत सरकार द्वारा पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया । पार्श्वनाथ विद्यापीठ की स्थापना के समय से ही आप इससे जुड़े रहे और इसे समय-समय पर अपनी नि:स्वार्थ सेवाएँ उपलब्ध कराते रहे । प्रो. सागरमल जैन को संस्थान के निर्देशक पद पर लाने में इन्हीं का सहयोग रहा है। उनके द्वारा सम्पादित ग्रंथों में उल्लेखनीय हैं - History of Jain Literatures, न्यायवर्त्तिका, धर्मोत्तराप्रदीप, प्रमाणवार्तिक आदि । उनका मौलिक चिंतन बड़ा प्रभावी था । समाज व साहित्य को अपने विचारों से उन्होंने नई दिशा दी। जैन दर्शन में आगम काल, ज्ञान बिन्दु नंदी और अनुभोग प्रज्ञापना आदि उनके लिखे ग्रंथों का गुजराती अनुवाद बहुत लोकप्रिय हुआ। आप सन् 1957 में All India Oriental Conference के जैनिज्म विभाग के अध्यक्ष चुने गये । सन् 1977 में आपने भारत के प्रतिनिधि के रूप में पेरिस में आयोजित वर्ल्ड संस्कृत कॉन्फ्रेंस में भाग लिया। सन् 1983 में आपने जर्मनी के स्ट्रेस बर्ग शहर में आयोजित "जैन Canonical Seminar " को भी अपना उद्बोधन दिया । सन् 1994 में एक लम्बी बिमारी के बाद आपका देहावसान हुआ । आपके निधन से जैन विद्या की अपूरणीय क्षति हुई ।
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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