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________________ जैन-विभूतियाँ अहिंसा प्रेरित हैं। हाँ, उनकी मान्यताएँ दिगम्बर जैन दर्शन के अधिक अनुरूप हैं, क्योंकि वे जिस समय की परम्परा के वाहक हैं, उस सम श्वेताम्बर सम्प्रदाय का जन्म भी नहीं हुआ था । अवश्य ही उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी में दक्षिण में प्रवासित उत्तर भारत के विभिन्न जैन सम्प्रदाय धर्मावलंबी जैनियों से वे सर्वथा भिन्न हैं । ये सद्य प्रवासित विभिन्न सम्प्रदायावलम्बी जैन सदा ही एक-दूसरे की टांग खींचने एवं अपनाअपना प्रचार करने में संलग्न रहते हैं - गृहस्थ भी और साधु भी । ये लोग 'जन्मना जैन' होने को भी व्यक्तिगत या सम्प्रदायगत स्वार्थ साधन के हथियार रूप में इस्तेमाल करते हैं । 199 वर्तमान जैन समाज के अंतर्विरोधों की बखिया खोलते हुए डॉ. शार्लोटे उक्त आलेख में कहती हैं- "यह कैसी विडम्बना है कि आत्मजयी जिनों का जो धर्म सार्वभौम सद्भाव का पाठ पढ़ाता है वही जातिआश्रति होकर मात्र वणिक वर्ग तक सीमित हो गया है। जाति और धर्म के इस अश्रद्धेय व अभंग अन्योनाश्रित संबंध ने दोनों को ही विग्रह के कगार की ओर ढकेल दिया । उत्तरी भारत का यह जैन समुदाय मुख्यतः मिश्र-आर्यन नस्ल के वैश्य वर्ण का ही एक भाग है। कभी गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र एवं राजस्थान के सुदूर प्रदेशों में बसे मोढ़ एवं नागर जाति के ब्राह्मण एवं बनिया सभी जैन धर्मावलंबी थे । वे सभी सोलहवीं / सत्रहवीं शताब्दी में वल्लभाचार्य एवं राज्याश्रय के प्रभाव में वैष्णव बन गए। भगवान महावीर के ग्यारह गणधर / शिष्य सभी ब्राह्मण थे। परवर्ती काल में अनेक जैनाचार्य ब्राह्मण वर्ण से ही थे। किंतु इतिहास गवाह है यह क्रम ऐसा टूटा कि बाह्मण और जैन एकदम विपरीत ध्रुवों पर स्थापित हो रहे । अलबत्ता आर्यों का क्षत्रिय वर्ण धर्म रूपांतरण से अवश्य जैन जातियों में परिवर्तित होता रहा । परन्तु इसका मूल कारण रण क्षेत्र की त्रासदी के विपरीत सामान्य नागरिक संहिता एवं खेती या व्यापार का शांतिपूर्ण जीवन रहा । सदियों से जैन धर्म बनिया जाति के ही मात्र ओसवाल, श्रीमाल पोरवाल घटकों की ही बपौती रहा है। ऐसा क्यों हुआ।"
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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