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________________ HARE 180 जैन-विभूतियाँ 45.पं. फतहचन्द कपूरचन्द लालन (1857-1953) जन्म . : नानकडा ग्राम (कच्छ), 1857 पिताश्री : कपूरचन्द जयराज लालन माताश्री : लाछी बाई उपलब्धि : सम्बोधन-विश्व धर्म परिषद्, शिकागो (1895), लंदन (1936) दिवंगति : 1953 सन् 1857 भारत के इतिहास का संघर्ष, उत्तेजना एवं संक्रांति का काल था। एक तरफ मुगलिया सलतनत का अवसान हो रहा था एवं अंग्रेज अपनी सार्वभौम सत्ता स्थापित करने के लिए कृत संकल्प थे दूसरी तरफ हजारों वर्षों की विदेशी गुलामी से त्रस्त एवं सुषुप्त भारतीय मानस में स्वतंत्रता की चिंगारी भभक कर जल उठी थी एवं सुनहरे भविष्य का स्वप्न उभर रहा था। इस परिप्रेक्ष्य में भी प्रागैतिहासिक काल से ऋषि मुनियों की जलाई अध्यात्म की लौ पथ-प्रदर्शक बनी रही। विदेशों में इस प्रकाश को सम्प्रेषित करने वालों में पं. फतहचन्द लालन का योगदान कम नहीं था। लालन गोत्र की उत्पत्ति कुछ इतिहासकार जालौर पारकर सिंध से मानते हैं। कुछ इतिहाकसार सोनीगरा सोढ़ा राजपूत वंश में रावजी नामक ठाकुर से मानते हैं। उनके पुत्र लालन रोग ग्रस्त थे। आचार्य जयसिंह सूरि ने मंत्र बल से बालक को स्वस्थ कर दिया। ठाकुर के समस्त परिवार ने सं. 1173 में जैन धर्म अंगीकार किया एवं ओसवाल कुल का अंग बन गए। इस गोत्र में अनेक शूरवीर, धनपति हुए हैं। . सन् 1857 में कच्छ के मांडवी ग्राम में कपूरचन्द जयराज की धर्मपत्नि लाछीबाई की कुक्षि से एक बालक का जन्म हुआ। बालक के मुख पर सदैव हास्य की किलकारी देख माता बड़ी आनन्दित होती। बालक का नाम फतहचन्द रखा गया। बड़े होकर पिता के साथ फतहचन्द
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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