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________________ 159 जैन-विभूतियाँ श्रद्धा थी वह आपके 'श्रीमद् विजयानन्द सूरी' प्रबन्ध में स्पष्टत: झलकती है। छात्रावस्था में आपका अनुराग संस्कृत की ओर था, किन्तु जब देखा जैन मूलशास्त्र सभी मुख्यतया प्राकृत में हैं तो आपने प्राकृत पढ़ना प्रारम्भ कर इस पर भी अपना पूर्ण अधिकार जमा लिया। इसी भाँति जब उन्हें ज्ञात हुआ अधिकांश जैन साहित्य गुजराती में है तो भाषा के ज्ञानार्जन के लिए गुजराती सम्वाद पत्रों के ग्राहक बनकर उन्हें नियमित रूप से पढ़ना प्रारम्भ किया एवं शीघ्र ही इसमें भी दक्षता अर्जित कर ली। आपके तीन पुत्र एवं चार कन्याएँ थीं। आपके प्रथम पुत्र श्री ऋषभचन्द जी का अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। साथ ही धर्मानुराग भी गम्भीर था विशेषकर प्रणीत अरविन्द योग के प्रति। श्री ऋषभचन्दजी ने 'इण्डियन सिल्क हाउस' की स्थापना की थी जो कि आज भी कलकत्ता के प्रमुख सिल्क प्रतिष्ठानों में एक है। महायोगी अरविन्द के प्रति उनका आकर्षण इतना घना था कि जमी हुई दूकान एवं घरबार सभी का परित्याग कर आप पांडिचेरी में आश्रमवासी हो गये। वे प्राच्य एवं पाश्चात्य सभी दर्शनों के अच्छे विद्वान थे। वहाँ जाकर इन्होंने फ्रेंच भाषा पर भी अधिकार कर लिया। आपने अरविन्द व मदर के साहित्य और दर्शन पर कई ग्रन्थ लिखे। श्यामसुखा जी ने अपनी ज्येष्ठ कन्या का विवाह एक समाज बहिष्कृत परिवार में कर अपनी जिस उदारता एवं मनोबल का परिचय दिया वह भी उल्लेखनीय है। श्री रणजीत सिंह जी दुघोड़िया धन, विद्या, चरित्र सभी दृष्टियों से योग्य व्यक्ति थे। किन्तु विलायत जाने के कारण उनके पिता समाज बहिष्कृत थे। श्यामसुखा जी जानते थे कि इस कार्य के परिणाम स्वरूप समाज इन्हें भी दण्डित करेगा फिर भी वे पीछे नहीं हटे। अपने संकल्प पर अटूट रहे। आज वह सामाजिक निषेध नहीं है किन्तु एक व्यर्थ की परम्परा को तोड़ने का गौरव तो कई अन्य लोगों की भाँति पूरणचन्द जी को भी प्राप्त है। नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् आप कुछ दिन बनारस जाकर रहे, किन्तु बाद में पुन: कलकत्ता लौट आए। जीवन के शेष भाग
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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