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________________ [ 67 ] दुर्बलता से तथा पाप प्रवृत्ति के कारण अन्तरंग में भय का संचार होता है । परन्तु तीर्थङ्कर भगवान अनन्त शक्ति के पुञ्ज स्वरूप तथा चारित्र एवं पुण्य के धनी होने से तीर्थंकर को भय उत्पन्न होने का प्रशन ही उत्पन्न नहीं होता है । (8) गर्व मान कषाय कर्म के उदय से एवं क्षुद्रता के कारण गर्व उत्पन्न होता है । तीर्थङ्कर भगवान आध्यात्मिक शक्ति से मान कर्म का मर्दन (क्षय) करके महान् विजयी होते हैं जिससे गर्व रूप क्षुद्रता उनको स्पर्श भी नहीं कर सकती है । ( 9 ) राग मोहनीय कर्म तथा चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से पर वस्तु के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है इस आसक्ति को ही राग कहते हैं । राग आग के समान आत्मा को भस्मीभूत करता है । आध्यात्मिक ध्यानाग्नि से तीर्थंकर भगवान राग उत्पादक कर्म को ही भस्मसात कर लेते हैं जिससे उनके अन्तःकरण में राग उत्पन्न नहीं होता है । ( 10 ) द्वेष - मोहनीय कर्म तथा क्रोध कषाय के उदय से स्व-पर को कष्टदायक द्वेष भाव उत्पन्न होता है | तीर्थंकर भगवान द्वेष को अपना परम शत्रु मानकर द्वेष उत्पादक कर्म का समूल विनाश कर देते हैं जिससे वे द्वेषरूपी दोष से निर्दोष हो जाते हैं । I ( 11 ) मोह मोहनीय कर्म उदय से मोह उत्पन्न होता है । मोह जीव को मोहित करके जीवों को महान दुःख देता है तीर्थंकर भगवान संसार का मूल कारण मोह को मानकर उसका समूल नाश कर देते हैं जिससे उनके हृदय में मोह अंकुरित नहीं होता है । ( 12 ) आश्चर्य - अज्ञानता के कारण आश्चर्य उत्पन्न होता है । तीर्थंङ्कर भगवान त्रिकालवर्ती विश्व के चर, अचर वस्तुओं की पर्यायों को युगपत् जानने के कारण उनको किसी भी विषय में आश्चर्य नहीं होता है । (13) अरति - अरति नोकषाय कर्म के उदय से दूसरों के प्रति जो अनादर, घृणा रूप भाव होता है उसको अरति कहते हैं । तीर्थङ्कर भगवान ध्यानाग्नि से अरति कर्म को समूल भस्म करने के कारण विकार रूप अरति भाव उनमें प्रगट नहीं होता है । ( 14 ) खेद वीर्यान्तराय कर्म एवं असातावेदनीय कर्म के उदय से खेद उत्पन्न होता है । तीर्थङ्कर भगवान दोनों कर्मों का नाश कर देते हैं, इसलिए उनको खेद उत्पन्न नहीं होता है। (15) शोक शोक नोकषाय कर्म के उदय से दुःख, संताप रूप शोक उत्पन्न होता है । नोकषाय का अभाव होने से तीर्थङ्कर को शोक उत्पन्न नहीं होता ।
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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