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________________ [ 58 ] अहंयव इवाजलं फलपुष्पानत द्रुमाः । सहैव षडपि प्राप्ता ऋतु-वस्तं सिविरे ॥18॥ हरि० पु०-पृ० अ० 3-पृ० 25 जिनमें समस्त वृक्ष निरन्तर फल और फूलों से नम्रीभूत हो रहे थे ऐसी छहों ऋतुओं "मैं पहले पहुंचू" "मैं पहले पहुँचू" इस भावना से ही मानो एक साथ आकर उनकी सेवा कर रही हैं। क्षेत्र परिस्थिति, जलवायु भावात्मक परिस्पंदन का परिणाम भी वनस्पतियों के ऊपर पड़ता है जिस प्रकार हिमालय के पाद्देश चिरश्रोता, गंगा, सिन्धु, नीलनदी ब्रह्मपुर आदि की तटभूमि सुन्दर वन में चिरहरित वनस्पति होती है। वर्षा ऋतु में वनस्पति पल्लवित पुष्पित होती है परन्तु ग्रीष्म ऋतु में नहीं । वर्तमान वैज्ञानिक लोग विशेषतः मनोवैज्ञानिक लोग सिद्ध किए हैं कि वनस्पतियाँ, पवित्र, प्रेम, अहिंसा भाव तथा मधुर संगीत से विशेषतः पल्लवित पुष्पित फलवती होती हैं इसका वर्णन आगे जीव-विज्ञान में किया जाएगा। उपरोक्त उदाहरण से सिद्ध होता है कि वनस्पति परिसर एवं भावों से प्रभावित होती हैं इसलिए तीर्थंकर के पवित्र वातावरण से अहिंसात्मक प्रभाव से प्रभावित होकर वृक्षों पर एक ही समय में सब ऋतुओं के फल-फूल लग जाते हैं। (2) निष्कंटक पृथ्वी होना : पवन कुमार जाति के देवों के द्वारा तीर्थंकर के विहार करते समय सुगन्ध मिश्रित हवा चलती है। पृथ्वी धूल, कंटक (काँटा) घास, पाषाण, कीटादि रहित होकर स्वच्छ रहती है। देवा वायुकुमारास्ते योजनान्तर्धरातलम् । चक्रुः कण्टकपाषाण कीटकादि विजितम् ॥22॥ वायु कुमार के देव एक योजन के भीतर की पृथ्वी को कण्टक, पाषाण तथा कीड़े-मकोड़े आदि से रहित कर रहे थे॥22॥ जब अपना घर, ग्राम या नगर में कोई विशिष्ट अतिथि, नेता, मंत्री आदि आते हैं तब उस अवसर पर नगर, रास्ता आदि स्वच्छ करते हैं । तो क्या ? तीन लोक के प्रभु, जगतउद्धारक, विश्व बन्धु तीर्थंकर के आगमन से देवलोक क्या पृथ्वी रास्ता स्वच्छ करने में क्या आश्चर्य है। ... (3) परस्पर मैत्री : तीर्थंकर भगवान पूर्वभव के विश्व मैत्री भावना से प्रेरित होकर जो बीजभूत पुण्य कर्म का बन्ध किये थे उस बीजभूत पुण्य कर्म तीर्थंकर अवस्था में अंकुरित-पल्लवित होकर फल प्रदान कर रहा है। उस मैत्री फल के कारण उनके पवित्र चरण के सानिध्य प्राप्त करते हैं, वे सम्पूर्ण जीव परस्पर की शत्रुता भूलकर परस्पर मैत्री भाव से बंध जाते हैं। अन्योन्य-गंधमासो ढुमक्षमाणामपि द्विषां । मैत्री वभूव सर्वत्र प्राणिनां धरणी तले ॥17॥
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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