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________________ सम्पादकीय प्रत्येक जीव स्वाभाविक रूप से शान्ति चाहता है एवं दुःख से घबराता है। शाश्वतिक सुख-शान्ति प्राप्त करने के लिये अहिंसा परक, सत्यमूलक शान्ति/उन्नति की आवश्यकता है। बिना क्रान्ति, शान्ति की उपलब्धि नहीं हो सकती । आधुनिक समय में भी फ्रांस, रूस आदि देशों में क्रान्ति सफल होने के उपरान्त ही सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक क्रान्ति/उन्नति हुई। इस क्रान्ति के लिये भी शक्ति की आवश्यकता होती है। कहा भी है -"जो कम्मे सूरा-सो धम्मे सूरा" अर्थात् जो क्रम में शूरवीर समर्थ होता है, वह ही धर्म में अपनी सफल भूमिका पूर्ण कर सकता है। भले रचनात्मक कार्य हो या विध्वंसात्मक कार्य हो-दोनों के लिये शक्ति की आवश्यकता होती है। शक्ति का दुरुपयोग ही विध्वंस को आमन्त्रित करता है तथा सदुपयोग ही निर्माण, क्रान्ति में समर्थ है। व्यक्ति, समिष्टि राष्ट्र में जो भौतिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, आध्यात्मिक क्रान्तियाँ हुई हैं, उन क्रान्तियों के लिये कुछ विशिष्ट महापुरुषों का योगदान महत्वपूर्ण रहा है । सम्पूर्ण क्रान्तियों में सुसंस्कार सम्पन्न महापुरुष की आवश्यकता अपरिहार्य है। उपर्युक्त समस्त क्रान्ति के अग्रदूत/नेता/कर्णधार प्रचारक/प्रसारक/सत्य-अहिंसा के अवतार कोई युग-दृष्टा, युग-निर्माता, जगदोद्वारक, महाज्ञानी, महापुरुष होते हैं—वे हैं-तीर्थकर । तीर्थंकर कोई एक दिन में नहीं हो जाते। इस गरिमामय भूमिका को प्राप्त करने के लिये जन्म-जन्म के त्याग, तपस्या, सेवा, प्रेम, मैत्री, अहिंसा, जितेन्द्रियता, समता-ममता के सुदृढ़ संस्कार की आवश्यकता होती है। इसलिये तो एक कल्पकाल (20 कोटा-कोटी सागर का 20X1014 सागर वर्ष) में केवल कर्मभूमि सम्बन्धी भरत या ऐरावत् क्षेत्र में केवल 48 तीर्थंकर होते हैं जबकि मोक्षगामी अरिहन्त जीव करोड़ों-अरबों हो जाते हैं। __ आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जिस समय पृथ्वी के पृष्ठ पर मानव समाज भौतिक भोगों व हिंसात्मक कार्यों में लिप्त होकर पथ-भ्रष्ट हो जाते हैं, तब एक महापुरुष की आवश्यकता होती है जो भटके हुए मानवों को सद्मार्ग पर लाता है । इस ही महान उदात्त, विश्वोद्वार कार्य के लिये तीर्थंकरों का उदय होता है । जब ऐसे महापुरुष माता के उदर में आते हैं, उसके पहिले से ही विश्व में उसकी सूचना प्रगट होने लगती है। जैसे, रत्नवृष्टि, देवताओं का आगमन आदि । जब तीर्थंकर गर्भ में आते हैं व फिर जन्म लेते हैं तब उसके विशेष परिणाम, प्रकृति के ऊपर पड़ते हैं। उस समय षड् ऋतुओं के फल-फूल एक साथ आना, सुभिक्ष
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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