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________________ [ 35 7 निकलता है परन्तु घी के दीपक से कम धुआँ निकलता है। उपर्युक्त प्रत्येक अवस्था में अग्नि प्रज्ज्वलित होते हुए भी और ईंधन जलते हुए भी धुएँ का परिमाण कम-बेसी क्यों होता है ? इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि जिस इंधन में जलांश, कार्बन अधिक अंश में रहता है उसमें से अधिक धुआं निकलता है जिसमें जलांश, कार्बन कम रहता है उसमें से धुआँ कम निकलता है। अग्नि तीव्र रूप से प्रज्ज्वलित होने से भी धुआँ कम निकलता है एवं अग्नि मन्द रूप से प्रज्ज्वलित होने से धुआँ अधिक निकलता है। इसी प्रकार महापुरुष लोग सारयुक्त कम भोजन करते थे एवं उनकी जठराग्नि तीव्र होने के कारण सम्पूर्ण खाद्य रसादि रूप में परिणमन हो जाता था । मल रूप में अवशेष नहीं होने के कारण वे आहार करते हुए नीहार नहीं करते थे। राज्य शासन समस्त तीर्थंकर क्षत्रिय राजकुल में उत्पन्न होने के कारण शैशव, बाल्यावस्था, कुमार अवस्था अत्यन्त सुख समृद्धि में व्यतीत होती है। युवावस्था में युवराज प्रवृत्ति को अलंकृत करते हैं। कुछ तीर्थङ्कर गृहस्थ जीवन-यापन करने के लिये वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं, कुछ तीर्थङ्कर उत्कृष्ट वैराग्य के कारण विवाह को संसार का सुदृढ़ बन्धन मानकर बाल ब्रह्मचारी अवस्था में ही दीक्षा धारण करते हैं। कुछ तीर्थङ्कर राजा बनते हैं, कुछ मण्डलीक, कुछ अर्द्ध माण्डलीक, कुछ चक्रवर्ती भी बनते हैं। चक्रेण यः शत्रु भयंकरेण जित्वा नृपः सर्व नरेन्द्र चक्रम् । ___ शान्तिनाथ तीर्थङ्कर गृहस्थ अवस्था में सुदर्शन चक्र को लेकर समस्त नरेन्द्र चक्र को (राजाओं के समूह को) जीत कर चक्रवर्ती हुए थे। राज्य शासन काल में भी गृहस्थ तीर्थङ्कर (भावी तीर्थङ्कर) न्याय नीति से प्रजापालन, दुष्ट-दमन सज्जनों का पालन करते थे। प्रजा को सन्तान के समान स्नेह, सौहार्द से शासन करते थे। तीर्थङ्कर राज्यकाल में किस प्रकार अनुशासन एवं प्रजापालन करते हैं, उसका वर्णन आदिनाथ तीर्थङ्कर के प्रकरण में किया जायेगा। पाठकगण वहाँ से देखें। तप कल्याण (परिनिष्क्रमण कल्याणक) जिस प्रकार कमल पङ्क में उत्पन्न होता है, पङ्क एवं जल से पोषण शक्ति प्राप्त करके वृद्धि को प्राप्त होता है तो भी कमल जल से तथा पङ्क से भिन्न अलिप्त रहता है उसी प्रकार तीर्थकर भगवान राज परिवार में जन्म ग्रहण करते हैं, देवोपनीत भोगोपभोग को सेवन करते हैं। देव, दानव, मानव से सेवित होते हैं और स्वयं राज्य राजेश्वर चक्रवर्ती होते हुये भी विषय भोगों को विषवत् मानकर अनंत सुख शान्ति को प्राप्त करने के लिये प्राकृतिक यथाजान दिगम्बरी जिनेन्द्र मुद्रा को धारण करते हैं।
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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