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________________ [ 17 ] सम्मता नाभिराजस्य पुष्पवत्थरजस्वला । वसुन्धरा तदा भेजे जिनमातुरनुक्रियाम् ॥101॥ __ (अ० 12 पृ० 259) अथवा उस समय वह पृथ्वी भगवान् वृषभदेव की माता मरूदेवी की सदृशता को प्राप्त हो रही थी क्योंकि मरूदेवी जिस प्रकार नाभिराज को प्रिय थी उसी प्रकार वह पृथ्वी उन्हें प्रिय थी और मरूदेवी जिस प्रकार रजस्वला न होकर पुष्पवती थी, उसी प्रकार वह पृथ्वी भी रजस्वला (धूलि से युक्त) न होकर पुष्पवती (जिस पर फूल बिखरे हुए थे) थी ॥101॥ सोलह स्वप्न अनन्तर किसी दिन मरूदेवी राजमहल में गंगा की लहरों के समान सफेद और रेशमी चादर से उज्ज्वल कोमल शैया पर सो रही थी। सोते समय उसने रात्री के पिछले प्रहर में जिनेन्द्र देव के जन्म को सूचित करने वाले तथा शुभ फल देने वाले नीचे लिखे हुए सोलह स्वप्न देखे ।।102-103।। ___ सबसे पहले उसने इन्द्र का ऐरावत हाथी देखा । वह गम्भीर गर्जना कर रहा था तथा उसके दोनों कपोल एवं सूंड इन तीन स्थानों से मद झर रहा था इसलिये वह ऐसा जान पड़ता था मानो गरजता और बरसता हुआ शरद् ऋतु का बादल ही हो ।।10 1।। दूसरे स्वप्न में उसने एक बैल देखा । उस बैल के कन्धे नगाड़े के समान विस्तृत थे, वह सफेद कमल के समान कुछ-कुछ शुक्ल वर्ण था । अमृत की राशि के समान सुशोभित था और मन्द गम्भीर शब्द कर रहा था ॥105॥ तीसरे स्वप्न में उसने एक सिंह देखा । उस सिंह का शरीर चन्द्रमा के समान शुक्ल वर्ण था और कन्धे लाल रंग के थे इसलिये वह ऐसा मालूम होता था मानो चाँदनी और सन्ध्या के द्वारा ही उसका शरीर बना हो ॥106।। चौथे स्वप्न में उसने अपनी शोभा के समान लक्ष्मी को देखा । वह लक्ष्मी कमलों के बने हुए ऊँचे आसन पर बैठी थी और देवों के हाथी सुवर्णमय कलशों से उनका अभिषेक कर रहे थे ॥107॥ पाँचवें स्वप्न में उसने बड़े ही आनन्द के साथ दो पुष्प-मालाएँ देखीं । उन मालाओं पर फूलों की सुगन्धि के कारण बड़े-बड़े भौंरे आ गये थे और वे मनोहर झंकार शब्द कर रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो उन मालाओं ने गाना ही प्रारम्भ किया हो। ॥1080 छठे स्वप्न में उसने पूर्ण चन्द्रमण्डल देखा। वह चन्द्रमण्डल ताराओं सहित था और उत्कृष्ट चाँदनी से युक्त था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो मोतियों सहित हँसता हुआ अपना (मरूदेवी का) मुख-कमल ही हो ॥109। सातवें स्वप्न में उसने उदयाचल से उदित होते हुए तथा अन्धकार को नष्ट करते हुए सूर्य को देखा । वह सूर्य ऐसा मालूम होता था मानो मरूदेवी के माङ्गलिक कार्य में रखा हुआ स्वर्णमय कलश ही हो ।।110। आठवें स्वप्न में उसने स्वर्ण के दो कलश देखे । उन
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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