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________________ [ xv ] जयतु जिन वर्द्धमानत्रिभुवनहितधर्मचक्रनीरजबन्धुः । त्रिदशपतिमुकुटभासुर, चूड़ामणिरश्मिरंजितारूणचरणः ॥ (11) ॥ - जो तीनों लोकों के हित करने वाले धर्म समूह रूपी अर्थात् भव्यजन समूह रूप कमलों के बन्धुस्वरूप अर्थात् उन्हें सुख देने वाले सूर्य के समान हैं। देवताओं के स्वामी इन्द्रों के मुकुटों में लगी हुई चूड़ामणि की किरणों से रंगे गये हैं, लालचरण जिनके, ऐसे महावीर स्वामी जयवंत रहें। जय जय जय, त्रैलोक्यकाण्डशोभि शिखामणे, नुद नुद नुद, स्वान्तध्वान्तं, जगत्कमलार्क नः । नय नय नय, स्वामिन् शांति, नितांतमनंतिमा, नहि नहि नहि, त्राता लोककमित्र, भवत्पर ॥ (12) ॥ हे तीनों लोकों में सुशोभित होने वाले शिखामणि के समान प्रभो! आपकी जय हो, जय हो, जय हो । हे जगत् रूपी कमल को विकसित करने वाले अर्क अर्थात् सूर्य हमारे हृदय के अंधकार को दूर कीजिए, दूर कीजिए, दूर कीजिए। हे प्रभो कभी नाश न होने वाली शान्ति को पूर्ण रूप से प्राप्त कराइये, शांति दीजिये, शान्ति से युक्त कीजिये । हे भव्य जीवों के अद्वितीय मित्र, आपके सिवाय और कोई रक्षा करने वाला नहीं है, नहीं है, वास्तव में नहीं है। जैसे सूर्योदय होने से अन्धकार साम्राज्य विलय हो जाता है, प्रकाश का साम्राज्य विस्तारित होता है, कमल विकसित हो जाते हैं, जीवों को वस्तु स्पष्ट प्रतिभाषित होने लगती हैं, रात्रिचर जीवों के संचार स्थगित हो जाते हैं, पशु, पक्षी, मनुष्यादि दिनचर प्राणी आनन्दोल्लास से विचरण करने लगते हैं, वैसे ज्योतिर्मय क्रान्तिकारी, महामहिम महामानव के प्रादुर्भाव से अज्ञान मिथ्यात्व, कुधर्म, अन्धपरम्परा, हिंसारूपी अन्धकार का साम्राज्य विलय हो जाता है, सत्य, धर्म, न्याय, सदाचार रूपी प्रकाशमय साम्राज्य का विस्तार होता है। भव्य जनों के हृदयरूपी कमल खिल उठते हैं, हिताहित पुण्य-पाप करणीय-अकरणीय; भक्ष-अभक्ष, गृहण-त्याग का परिज्ञान स्पष्ट रूप से परिभाषित होने लगता है। पाप रूपी रात्रि में विचरण करने वालों का प्रभाव मन्द हो जाता है एवं धर्मरूपी प्रकाशमान दिन में विचरण करने वाले आनन्द से संचार करने लगते हैं। इसीलिये क्रान्तिकारी महापुरुष सूर्य के समान स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं उनका जीवन ही जीवन्तशास्त्र, उनका चरित्र चलता-फिरता धर्म, उनके वचन ही अमृत हैं। महापुरुषों के बारे में एक कवि ने कहा है चलते चलते रहा बढ़ते बढ़ते ज्ञान । तपते तपते सूर्य हैं, महापुरुष महान् ॥ वे जिस मार्ग में चलते हैं वह ही मार्ग दूसरों के लिये गमन करने योग्य आदर्श पथ बन जाता है । उनके सम्पूर्ण आचार-विचार, उच्चार मूर्तिमान ज्ञान स्वरूप होते हैं और वे स्व-पर कल्याण के लिये विभिन्न बाधाओं से संघर्ष करते हुए सूर्य के समान देदीप्यमान हो जाते हैं।
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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