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________________ [ 94 ] उस समय बिना कहे ही समस्त ऋतुएँ एक साथ वृद्धि को प्राप्त हो रही थीं, सो ऐसी जान पड़ती थीं मानो समदृष्टि भगवान् के द्वारा अवलोकित होने पर वे समरूपी ही हो गयी थीं। यथार्थ में स्वामीपना तो वही है जिसमें किसी के प्रति विकल्प-भेदभाव न हो। निधानानि निधोरन्नान्याकराण्यमृतानि च। सूयते तेन विख्याता रत्नसूरिति मेदिनी ॥ 82 ॥ उस समय पृथ्वी जगह-जगह अनेक खजाने, निधियाँ, अन्न, खाने और अमृत उत्पन्न करती थीं इसलिए 'रत्नसू' इस नाम से प्रसिद्ध हो गयी थी। अन्तकोऽन्तकजिद्वीर्यपराजितपराक्रमः । चर्म चक्रोजिते लोके नाकाले करमिच्छति ॥ 83 ॥ अन्तकजित्-यमराज को जीतने वाले भगवान् के वीर्य से जिसका पराक्रम पराजित हो गया था ऐसा यमराज, धर्म चक्र से सबल संसार में असमय में करग्रहण करने की इच्छा नहीं करता था। भावार्थ-जहाँ भगवान् का धर्म चक्र चलता था वहाँ किसी का असमय में मरण नहीं होता था। कालः कालहरस्याज्ञामनुकूलभयादिव । प्रविहाय स्ववेषम्यं पूज्येच्छामनुवर्तते ॥ 84॥ काल (यम) को हरने वाले हैं (पक्ष में समय को हरने वाले) भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध आचरण न हो जाये, इस भय से काल (समय) अपनी विषमता को छोड़कर सदा भगवान् की इच्छानुसार ही प्रवृत्ति करता था । भावार्थ-काल, सर्दीगर्मी, दिन-रात आदि की विषमता छोड़ सदा एक समान प्रवृत्ति कर रहा था । जन्मजात वैरी में भी मित्रता जन्मानुबन्ध वैरो यः सर्वोऽहिन कुलादिकः। तस्यापि जायतेऽजयं संगतं सुगताज्ञता ॥ 86॥ जो सांप, नेवला आदि समस्त जीव जन्म से ही वैर रखते थे उन सभी में भगवान् की आज्ञा से अखण्ड मित्रता हो गयी थी। सुगन्ध वयार-- गन्धवाहो वहन्गन्धं भर्तुस्तं कथमाप्नुयात् । अचण्ड: सेवते सेवां शिक्षयन्ननुजीविनः॥ 87॥ भगवान् की बहती हुई गंध को, पवन किस प्रकार प्राप्त कर सकता है इस प्रकार अनुजीवी जनों को सेवा की शिक्षा देता हुआ वह शांत होकर भगवान् की सेवा कर रहा था। भावार्थ-उस समय शीतल, मंद सुगन्धित पवन भगवान् की सेवा कर रहा था सो ऐसा जान पड़ता था मानो वह सेवक जनों को सेवा करने की शिक्षा ही दे रहा था।
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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