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________________ मार्गानुसारी आत्मा का छठा गुण है - निन्दा का त्याग । निन्दा अर्थात् अपने अतिरिक्त विश्व के श्रेष्ठ, सज्जन अथवा दुर्जन अथवा अन्य किसी भी व्यक्ति की बुराई करने वाले, उसको निकृष्ट बताने वाले वचन कहना। वचनों के द्वारा किसी अन्य के गुणों पर, किसी भी सज्जनता पर प्रहार करना निन्दा है, किसी अन्य को गिराने का प्रयत्न निन्दा है। 'अमुक व्यक्ति बुरा है, यह बात निन्दा के द्वारा व्यक्त करके कुटिल रीति से मैं श्रेष्ठ हूँ' यह बताने का निन्दकों का भाव होता है। निन्दा किसी की भी उपादेय नहीं है - इस कारण ही ज्ञानी कहते हैं कि निन्दा किसी भी परिस्थिति में श्रेष्ठ नहीं है, उपादेय नहीं है, आचरणीय नहीं है। गुणवान पुरुषों की निन्दा तो त्याज्य है ही, परन्तु दुर्जन व्यक्तियों की निन्दा भी करनी नहीं चाहिये। कोई व्यक्ति यह तर्क प्रस्तुत करें कि "दुष्ट व्यक्तियों की दुष्टता प्रकट करने वाली सत्य बात कहने में क्या आपत्ति है ? वह निन्दा थोड़ी ही कहलाती है ? इसका उत्तर यह है साढ़े सत्रह बार आपत्ति है, पूर्ण आपत्ति है। प्रथम बात तो यह है कि दुष्टों की दुष्टता प्रकट करने की ठेकेदारी लेने की हमें कोई आवश्यकता नहीं है। दूसरी बात यह कि निन्दा चाहे दुर्जन की हो अथवा सज्जन की हो, उसे करने से हमारी जीभ दूषित होती है। इससे हमारा तो निश्चित रूप से अहित होता है। रमापति मिश्र को मदनमोहन का श्रेष्ठ उत्तर - मुझे स्मरण हो आई है बनारस के सुप्रसिद्ध विद्वान पणिडत मदनमोहन मालवीय एवं पण्डित रमापति मिश्र की बात। दोनों में किसी कारणवश भारी विरोध चल रहा था, फिर भी वे दोनों अपनी अपनी रीति से अत्यन्त ही सज्जन एवं सद्गुणी पुरुष थे। एक बार पण्डित रमापति ने कहा "मदन मोहन जी। आप मुझे एक सौ गालियां दें तो भी मेरा पारा नहीं चढेगा, आप प्रयत्न कर देखिये।" तब पण्डित मदनमोहन मालवीय ने अत्यन्त सुन्दर उत्तर दिया-"आपकी बात सच्ची होगी परन्तु आपकी सहिष्णुता की परीक्षा तो एक सौ गालियां देने के पश्चात् होगी, जबकि मेरा मुँह तो प्रथम से ही गालियाँ देने से गन्दा हो जायेगा, दूषित हो जाएगा। इस प्रकार की हानि का धंधा मुझे रास नहीं आयेगा।" कैसी सुन्दर बात। यदि इतनी बात समझ में आ जाये कि निन्दा करने से मेरा मुँह निश्चित रूप से दुर्गन्ध युक्त हो जायेगा तो निन्दा का परित्याग करना प्रत्येक व्यक्ति के लिये सरल हो जायेगा। तीसरी बात यह है कि निन्दा करने से दुष्ट की दुष्टता दूर हो जाती है अथवा दुर्जन व्यक्ति सुधर जाता है - यह मानना तो निरा भ्रम है। उल्टा निन्दा करने से दुष्ट व्यक्ति के मन में हमारे प्रति विद्वेष की भावना जागृत होती है। उसके सुधरने के अवसरों की अपेक्षा निन्दा से उसके बिगड़ने के अवसर अधिक होने की सम्भावना है। GOOGO 89 909098909
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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