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________________ विरुद्ध हो। वह भी नहीं करनी चाहिये। फिर भी द्वितीय प्रकार की आयकर आदि की चोरी के रूप में अनीति करना यदि आप नहीं छोड़ सको तो प्रथम प्रकार की अनीति का तो परित्याग करो। जन साधारण के साथ धोखा आदि करने के रूप में अनीति का परित्याग आपके धार्मिक जीवन में ऐसा पुण्य उत्पन्न करेगा जो कदाचित् द्वितीय प्रकार की अनीति का परित्याग करने का बल भी उत्पन्न कर देगा। अनीति का परित्याग-सुधर्म का प्रथम सोपान हम संसार में हैं, अत: धनोपार्जन का उद्यम तो करना ही पड़ता है। जीवन-निर्वाह के लिये कोई घर घर जाकर भिक्षा नहीं मांगी जा सकती। ऐसा करने पर तो श्रावक के रूप में आपकी और आप के धर्म की, जैन-शासन की निन्दा होगी। परन्तु धनोपार्जन का उद्यम ऐसा तो होना ही नहीं चाहिये कि जिसमें आत्म-कल्याण की दृष्टि ही समाप्त हो जाये। गृहस्थ श्रावक का लक्ष्य तो सर्व-संग-परित्याग का ही होना चाहिये। जिस प्रकार स्वस्थ होने के लिये रोगी औषधि का सेवन करना है, परन्तु औषधि का सेवन करते रहना उसका लक्ष्य नहीं है। उसका लक्ष्य तो स्वस्थ होना है और स्वस्थ होने पर औषधि स्वत: ही बन्द हो जायेगी। इस प्रकार श्रावक के हृदय में यदि यह हो कि 'मैं कब धन का पूर्णत: त्यागी (साधु) बनूँ यह लक्ष्य हो तो कम से कम वह धनोपार्जन में अनीति का त्याग तो करेगा ही। अनीति का परित्याग करो तब समझ लेना कि आपसुधर्म के प्रथम सोपान पर चढ़ गये। अनीति का परित्याग करने के लिये शुभ भावनाऐं अपनाओ जब जब आपके हृदय में अनीति, अन्याय से धन प्राप्त करने के भाव उत्पन्न हों, तब तब निम्न भावनाएं लायें : __ 1. अन्याय से धन तो प्राप्त होगा, परन्तु उससे पाप-कर्म बँधते हैं और उनके उदयकाल में अन्याय से भी मुझे धन प्राप्त नहीं होगा। 2. 'न्याय-मार्ग से ही धन उपार्जन करूँगा' इस प्रकार के दृढनिश्चयी जीव को 'लाभान्तराय का क्षयोपशम' होता है और अल्प श्रम से अधिक सम्पत्ति की प्राप्ति होगी। 3. आप यदि न्याय-मार्ग पर अटल रहोगे तो अन्य अनेक व्यक्तियों को न्याय-मार्ग (नीति का मार्ग) अपनाने की अभिलाषा होगी और जिससे गाँव, समाज और लोक में न्यायी मनुष्यों की वृद्धि होगी और उसमें निमित्त होकर आप अपूर्व पुण्य उपार्जन करेंगे। 4. सम्पूर्ण धन के त्यागी-साधु होने के लिये सर्व प्रथम अनीति का तो त्याग करना ही पड़ता है। श्रावक के रूप में मेरा लक्ष्य साधु बनना है तो फिर मुझसे अनीति हो ही क्यों? 5. नीतिशास्त्र का कथन हैं कि, "अनीति से उपार्जित धन दस वर्ष से अधिक समय तक नहीं ठहरता और यदि कदाचित् ठहर जाये तो वह नीति से उपार्जित धन को भी खींच ले जाता है 60006030 200000
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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