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________________ SEG Å 505050505 दिन मैंने उसे पूछा - "भाई। तुम नित्य कितनी सिगरेट पीते हो ?' उसने उत्तर दिया "श्रीमान । बीस-पच्चीस तो हो ही जाती है।" मैंने उत्तर दिया “लगभग तीन रूपये होते होंगे।" अर्थात तुम महिने में लगभग एक सौ रूपयों की तो सिगरेट ही पीते हो ? यह आदत कितने वर्षो से है ?" उत्तर मिला - " दस वर्षों से।" यदि हिसाब लगाया जाये तो दस वर्षो में उस व्यक्ति ने बारह हजार रूपयों की सिगरेट फूँक दी। सिगरेट पीने वालों को स्मरण रखना चाहिये कि तुम सिगरेट नहीं फूँकते, परन्तु सिगरेट तुमको फूंक रही हैं, तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर रही है। यदि आपकी आय कम हो तो उस दृष्टि से भी व्यर्थ की कुटेवों और आदतों को छोड़नी चाहिये। एकदम तो नहीं छूट सकती- यह बात सत्य है, परन्तु उन्हें छोड़ने का उद्यम तो करते रहना ही चाहिये। व्यसन, व्यवहार एवं वासना की दासता : व्यसन, व्यवहार एवं वासना के कारण वर्तमान समाज का अत्यधिक धन कुमार्ग की ओर जा रहा है। निर्धन व्यक्ति व्यसनों में धन का अपव्यय करते हैं मध्यम वर्ग के व्यक्ति मिथ्या व्यवहारों के पीछ शक्ति से उपरान्त व्यय करते हैं और धनी व्यक्ति वासनाओं का पोषण करने में अपनी सम्पत्ति को फूंकते हैं। जो लोग समझदारी से अनी आय का उचित उपोग करते हैं वे समाज को मंगल प्रेरणा देते एक सज्जन की बात मुझे स्मरण हो आई है। एक सज्जन की ऊंची विचार धारा :- उन सज्जन की ईमानदार व्यापारी के रूप में बाजार में प्रतिष्ठा थी। वे एक नम्बर की ही बहियां रखते थे। वे अपनी समस्त आय नीति-मार्ग से ही प्राप्त करते थे। वे अत्यन्त सुखी थे। कही यात्रा पर जायें तो प्रथम में प्रवास करने के लिये शक्ति-सम्पन्न थे, फिर भी वे द्वितीय श्रेणी में ही प्रवास करते । अनेक व्यक्ति उन्हें 'कंजूस काका' कहते, परन्तु वास्तव में तोवे मितव्ययी थे। मितव्यय और कृपणता में अन्तर है। मितव्यय गुण है, कृपणता दुर्गुण है। उदारता सद्गुण है, अपव्यय दुर्गुण है। अपने जीवन के व्यवहार में उदारता हमारा कर्त्तव्य है। किसी मित्र ने उन्हें पूछा, चाचा। अप इतने सुखी हैं फिर भी जीवन-व्यवहार में इतना मितव्यय क्यों करते है। ? उत्तर देते हुए उन्होंने कहा - धर्म, - यह हमारा जीवन अनेक व्यक्तियों के उपकारो के कारण चल रहा है। हम जो अन्न खाते हैं उसे हमने उत्पन्न नहीं किया। बीज से लगाकर भोजन बनने तक तो अनेक व्यक्तियों ने अपना परिश्रम उसमें डाला है। वस्त्र, आवास, आदि हमारे जीवन की अनेक आवश्यक वस्तु अनेक मनुष्यों के उपकार से प्राप्त होती हैं। हममें जो शुभ विचार एवं जो शुभ भावनाऐं प्रकट होती हैं उनमें भी देव, माता, पिता, शिक्षक, उत्तम पुस्तकों आदि के अनन्य उपकार कारण भूत हैं।" गुरू, ccccccce6 161 505000000
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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