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________________ कहाँ ढूंढा जाये यह प्रश्न उठाने की बात ही नहीं हैं। ऐसे शिष्ट-जनों के द्वारा जिन आचारों को, जिन पापों को त्याज्य बताया गया है, उन का जीवन में त्याग करना हमारा महान् कर्तव्य है। जो व्यक्ति उत्तम मनुष्यों के रूप में जीवन यापन करना चाहते हों उन्हें शिष्ट-जनों को अमान्य निन्द्य प्रवृत्तियों का परित्याग अवश्य कर देना चाहिये। उत्तम भव, जाति एवं कुल निष्फल क्यों ? कैसा उत्तम प्राप्त हुआ है हमें मानव-भव। कैसी महान् प्राप्त हुई है हमें माता सम्बन्धी जाति। कैसा उत्तम प्राप्त हुआ है हमें पिता सम्बन्धभ कुल। ये सब उत्तम प्राप्त होने पर भी यदि हम इन्हें सफल नहीं कर सकें तो उसका अत्यन्त महत्वपूर्ण कारण यही है कि शिष्ट मनुष्यों द्वारा अमान्य किये गये अयोग्य (निन्द्य) आचारों को हमने जीवन में स्थान दिया। और इस कारण ही आर्य देश, आर्य भव, आर्य जाति एवं आर्य कुल सभी हमारे लिये निरर्थक सिद्ध हुए। जो व्यक्ति अपने व्यवहार में, अपने समाज में, अपनी जाति में उच्च प्रतिष्ठित जीवन व्यतीत करना चाहते हों उन्हें निन्दनीय प्रवृत्तियों का परित्याग करना ही पड़ेगा। जिस व्यक्ति के जीवन में अत्यन्त विलासिता, भोगाभिलाषा, सामाजिक-धार्मिक नीतियों के नियमों के नियंत्रण से मुक्त स्वच्छन्द विहारिता आदि निन्द्य प्रवृत्तियां होंगी उसकी समाज में तनिक भी प्रतिष्ठा नहीं रहती। उसका यह भव नष्ट होता है - धन से, प्रतिष्ठा से, आरोग्य से और पारिवारिक सुख-शान्ति से और उसका पर भव भी नष्ट हो जाता है - सद्गतियों से। जिस व्यक्ति को इस लोक में सुख, शान्ति अथवा सम्मान प्राप्त नहीं हो और परलोक में उत्तम गति (मानव गति अथवा देव गति) प्राप्त नहीं हो उन व्यक्तियों के मानव-जीवन का मूल्य कितना ? उनके जीवन का मूल्य है मिट्टी जितना। अनियंत्रित भोग-विलासमय जीवन कुछ समय के लिये ही सुख (वह भी सच्चा सुख नहीं, भ्रान्त सुख) प्रदान करता है। अत्यन्त दीर्घ काल तक उसके कटु परिणामों का भोग होना ही पड़ता है। अत्यन्त विलासी मनुष्य सुखी नहीं है - प्राय: अत्यन्त विलासी एवं स्वछन्दी मनुष्यों के मन तृप्त नहीं होते। वे वास्तव में सुखी नहीं होते। उन्हें पारिवारिक जीवन में शान्ति का अनुभव नहीं होता। अथवा तो उनकी पत्नी अत्यन्त झगड़ालू-कर्कशा होती है, अथवा उनकी सन्तान कुमार्ग-गामी अथवा उदंड एवं उच्छृखल होती है। अथवा तो ऐसे मनुष्य सरकारी कठिनाईयों में निरन्तर उलझे हुए रहकर मानसिक रूप से अत्यन्त व्याकुल होते हैं। इस प्रकार प्राय: उनके जीवन में सुख-शान्ति नहीं होती। ___ माता और पिता के जीवन में दुराचार आदि के महान् पाप हो तो उनके सन्तानों में भी, __ अनिच्छा से भी उन दुर्गुणों का प्रति बिम्ब पड़ता ही है और उस समय माता-पिता के लिये मस्तक - SCRECOGS 147900000000
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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