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________________ CECECECECe 1 5a5a5a595 स्वयं को गौरवशाली मानती है। हाय, आतमराम! तेरी यह शूकर के समान दुर्दशा किसने की ? तनिक तो सोच ! "पौद्गलिक सुखों के साधनों की प्राप्ति में ही सुख है और उन साधनों को प्राप्त नहीं कर सकने पर अथवा अल्प प्रमाण में प्राप्त करने पर दुःख है।" इस पापपूर्ण चिन्तन ने चिन्तनशील जीवात्मा को मूढ बना दिया है और यह मूढ़ता ही मिथ्यात्व है तथा यह मिथ्यात्व ही सम्यग् दर्शन का कट्टर शत्रु है। अब तनिक चिन्तन की दिशा में परिवर्तन करें। प्रभु महावीर का अमूल्य शासन प्राप्त हुआ है, क्षुद्र विषयों का आनन्द प्राप्त करने के लिये आत्मा के असीम एवं अनुपम आनन्द को खो देने को दुस्साहस हमें नहीं स्वीकार करना चाहिये । महावीर का शासन हमें प्राप्त हुआ है तो महावीर नहीं तो हम महावीर की सन्तान तो बनें। की सन्तान का जीवन कैसे होता है ? उनका जीवन तो ऐसा होना चाहिये जो दूसरों के लिये प्रेरणा का आदर्श प्रस्तुत करता हो । उनका सान्निध्य तो ऐसा होना चाहिये जो दूसरों को साहस एवं उत्साह प्रदान कर सके, प्रेम एवं वात्सल्य के अमृत का दान प्रदान कर सके। यदि पाँच इन्द्रियों के विषय - विलास में उलझ गये तो स्मरण रखना- इस जीवन का अन्त तो भयावह होता ही, परन्तु परलोक में भी घातक दुर्गति हमारा पीछा नहीं छोड़ेगी। दुर्गतियों की उन दारुण व्यथाओं को क्या हम भोग सकेंगे? यदि नहीं तो फिर उन विषय-वासनाओं की अग्रि का स्पर्श करने और उससे लिपट कर उसका उपभोग करने की आत्म- घातक राह से लौट जायें और जिनाज्ञा को शिरोधार्य करके जीवन जीएं, जिनाज्ञानुसार सात्त्विक आनन्द पूर्ण जीवन जियें । अनादि कालीन परिभ्रमण के पश्चात् प्राप्त यह मानव भव अब तो व्यर्थ नहीं खो देना चाहिये। इतना हम दृढ़ संकल्प करें। अनन्त जन्मों की पुण्य - राशि एकत्रित होने पर प्राप्त जिनशासन को हम सफल करें, सार्थक करें। हमारे प्रति किये गये तीर्थंकर भगवानों के अनन्त उपकार को हम सार्थक करें। हमारे इस वर्तमान जीवन में भी कितने मनुष्यों का सहयोग, सहायता एवं उपकार है ? उन सभी के उपकार को मानने वाले हम क्या परम तारणहार तीर्थंकर देवों का उपकार ही भुला देंगे ? उन उपकारों का बदला चुकाने का तनिक भी सामर्थ्य हम में नहीं है, परन्तु उन अनन्त उपकारियों के उपकार के ऋण से उऋण होने के लिये कुछ प्रयत्न तो हमें अवश्य करने ही चाहिये। यह प्रयत्न अर्थात् प्रथमोक्त उपासनाओं के तीन प्रकार : 1. सर्वविरति धर्म का स्वीकार । 2. देशविरति धर्म का स्वीकार और COCO · JAJAJAJAX 9
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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