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________________ ooox मम्मण के जीव ने कहा “नहीं, मैंने लड्डू तो सब मुनिवर को अर्पित कर दिये।" तब उस पड़ोसी ने कहा “अरे सेठ । आप भी पूर्णत: मूर्ख हैं। सिंह केसरिये लड्डू क्या मुनिवर को अर्पित कर दिये जायें ? और वे भी सबके सब अर्पित कर दिये जायें क्या ? आपको अपने लिये भी कम से कम एक लड्डू तो रखना था ? यदि आपने खाया होता तो जीवन भर स्मरण रहता । " म्ण के जीव ने कहा, पर अब क्या हो ? et ce 1990s... 1000000 तब उस पड़ोसी ने डिब्बे में चिपके हुए लड्डू के दो- -चार कण मम्मण के जीवन को चखाये। उन्हें चखकर सेठ प्रसन्न हो गये। सेठ ने कहा “अत्यन्त स्वादिष्ट ऐसा लड्डू तो मैंने जीवन में कदापि नहीं चखा।'' तब पड़ोसी बोला " तो फिर क्या सोच रहे हैं ? जाइये, अभी मुनिवार मार्ग में ही होंगे। आप द्वारा अर्पित लड्डू मुनिराज से पुनः लेकर आ जाओ।” और सेठ लड्डु वापिस लेने के लिये मुनिराज के पीछे भागे । सेठ का पड़ोसी कैसा था ? वह अत्यन्त ईर्ष्यालु स्वभाव का था । "मुझे प्राप्त न हो तो कोई बात नहीं, परन्तु मुनिराज को तो खाने नहीं दूंगा।'' इस प्रकार की अधम मनोवृत्ति थी उस पड़ोसी की । उसने सेठ के शुभ कार्य में घास झौंकने का कार्य किया। शुभ भाव की अनुमोदना करना अमूल्य संस्कार है। उसने उसमें दिया सलाई लगाने का कार्य किया। इस पड़ोसी के बदले आदि कोई उत्तम संस्कार युक्त पड़ोसी होता तो ? तो वह सेठ के सत्कर्म की अनुमोदना करता "सेठ । आप कैसे भाग्यशाली हैं ? आपको सिंह केसरी लड्डू मुनिवर को अर्पित करने का सुअवसर प्राप्त हुआ | आपके पुण्य का क्या बखान करूं ? सचमुच आपने अत्यन्त उत्तम कार्य किया है।" यदि इस प्रकार की अनुमोदना करने वाला कल्याण-मित्र पड़ोसी मिला हो तो कदाचित् पूर्व भव का वह सेठ मम्मण नहीं बनता और धन की मूर्च्छा के पाप से सातवी नरक का अतिथि भ नहीं बनता, उनका इतिहास कुछ भिन्न ही लिखा जाता। हमारे शुभ भावों को परिपुष्ट करने वाला एवं धर्म-कार्यों में प्रोत्साहन देने वाला कल्याणमित्र प्रबल पुण्योदय से ही प्राप्त होता है। शुभ भावों का नाशक एवं अधर्म के कार्यों का प्रेरक पापमित्र घोर पापोदय से प्राप्त होता है। मम्मण का जीव वह सेठ लड्डू वापिस लेने के लिये मुनिराज के पीछे भागा। अन्त में मुनिराज मिले तब उसने उन्हें कहा “मेरे लड्डू मुझे पुन: दे दीजिये।” मुनिराज ने काह “वे लड्डू तो आपने मुझे अर्पित कर दिये। अब मैं वे वापिस नहीं दे सकता।" परन्तु वह सेठ तो जिद्द पर था, "मुझे अपने लड्डू वापिस ही चाहिये।" xox 100 3959595
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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