SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ श्री विजय मुक्तिचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य पू. मुनिराज श्री जयभद्रविजयजी म.सा. का चातुर्मास था । उपरोक्त मित्रकी प्रेरणा से रामसंगभाई मित्र के साथ व्याख्यान श्रवण करने के लिए जाने लगे । धीरे धीरे जिनवाणी का रंग लगने लगा। पूर्व जन्म के जैनत्व के संस्कार जाग्रत होने लगे । व्यसन छूटने लगे सामायिक प्रतिक्रमण आदि धर्मक्रियाओं में रस आने लगा । पर्युषणमें ६४ प्रहर का पौषध व्रत करने के लिए मित्रने प्रेरणा की, मगर हररोज स्नान करने के बाद गणपति की पूजा करने के कुलपरंपरागत संस्कार वाले रामसंगभाई को पौषधमें रुचि होने पर भी गणेशपूजामें विक्षेप न हो इसलिए पौषध तो वे नहीं स्वीकार सके मगर आठों दिन अधिकतर समय उपाश्रयमें ही व्यतीत करने लगे। चातुर्मास के बाद शियाणी तीर्थ तक म.सा. के साथ गये । बादमें वढवाण में जो भी जैन साधु भगवंत पधारते उनके प्रवचन एवं वाचना आदिका लाभ वे अचूक लेने लगे। प्रज्ञाचक्षु पं. श्री अमुलखभाई के पास में दो प्रतिक्रमण सूत्र कंठस्थ कर लिये । अरिहंत परमात्मा की स्वद्रव्य से नियमित अष्टप्रकार की पूजा करने लगे । चंदन भी अपने हाथों से घिसते हैं एवं प्रभुजीकी प्रक्षाल के लिए पानी भी अपने घर से ही छना हुआ लाते हैं । पूजा के लिए चांदी के उपकरण बसाये हैं। आत्महितकर प्रेरणा का तुरंत स्वीकार करने की प्रकृतिवाले रामसंगभाई ने ब्रह्मचर्य की महिमा समझकर, एक पुत्र एवं २ पुत्रियों के पिता बनने के बाद २८ साल की युवावस्थामें अपनी धर्मपत्नी झीकुबाई की सहर्ष संमतिपूर्वक प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के पास आजीवन संपूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करने के लिए गये। आचार्य भगवंतने प्रथम तो उनको अभ्यास के लिए १ - २ साल तक इस असिधारा व्रत को स्वीकारने की प्रेरणा दी, मगर क्षत्रिय कुलोत्पन्न इस दंपतीने आजीवन व्रत स्वीकारने के लिए ही अपने सुदृढ निर्णय की अभिव्यक्ति करने पर आचार्य भगवंतने आशीर्वाद के साथ उनको आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा दी !...
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy