SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 476
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३९९ अकल्पनीय गोचरी नहीं लेने के लिए वे अत्यंत जागरूक थे । रातको भी अल्प निद्रा लेकर अधिकांश समय जप में व्यतीत करते हैं। जब भी देखो तब उनके हाथ में माला या पुस्तक दो में से एक वस्तु अवश्य दृष्टिगोचर होगी । वात्सल्यादि सद्गुण भी अपूर्व कोटिके हैं । ऐसे उत्तम आराधक आत्मा के जीवन में से सभी यथाशक्ति प्रेरणा प्राप्त करें यहीं हार्दिक शुभेच्छा। 38888888888883388888888888888888 रलकुक्षि आदर्श श्राविकारल पानबाई रायसी गाला (चांगडाइवाला) शास्त्रमें मदालसा सती की बात आपने सुनी होगी ? ऐसी ही बात रत्नकुक्षि आदर्श श्राविका श्री पानबाई की है । जिस तरह महासती मदालसा अपनी प्रत्येक संतान को पारणे में झुलाती हुई "शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरंजनोऽसि, संसारमाया-परिवर्जितोऽसि" इत्यादि श्लोक द्वारा वैराग्य के सुसंस्कारों का सिंचन करके संन्यासी बनाती थीं, उसी तरह सुश्राविका श्रीपानबाई ने अपनी प्रत्येक संतान को बचपन से ही संसार की असारता दृष्टांतों द्वारा समझाकर वैराग्य के मार्ग में प्रवेश कराया है । (१) महावीर जैन विद्यालय (गोवालिया टेन्क मुंबई) में रहकर एल्फिस्टन कोलेज में इन्टर सायन्स (Int. Sc.) का अध्ययन करते हुए सुपुत्र मनहरलाल को पत्र द्वारा एवं छुट्टियों में प्रत्यक्ष हितशिक्षा द्वारा हमेशा प्रभुभक्ति एवं सत्संग करने की प्रेरणा दी । फलतः जब उसको धर्म का मर्म समझने की और संयम स्वीकारने की भावना जाग्रत हुई तब माता पानबाई ने सहर्ष आशीर्वाद सह अनुमति प्रदान की। अपना बेटा बड़ा होकर डॉक्टर या एन्जिनीयर बनकर संपत्ति और गौरव दिलायेगा ऐसी मोहगर्भित विचारधारा युक्त पिता रायसीभाईने ५-५ साल तक प्रतीक्षा करने के बाद भी संयम के लिए अनुमति नहीं दी तब माता पानबाई ने हिंमत करके सुपुत्र मनहरलाल (हाल प्रस्तुत पुस्तक के संपादक एवं मेरे
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy