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________________ १५२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ बिल्कुल साहजिक - नैसर्गिक था !॥... दश वर्ष के सहजीवनमें कभी भी उनकी ओर से व्रत विरुद्ध सहज भी बातचीत या चेष्टा नहीं हुई । अध्यवसायों की निर्मलता के लिए दोनों एक दूसरे को भाई-बहन के रूपमें ही संबोधन करते थे !!!... इस तरह देव-गुरु कृपा से निर्मल व्रत पालन करते हुए दश साल बीत गये । इसके दौरान दोनोंने भारतभर के करीब १७५ से अधिक तीर्थों की अनेक बार यात्रा की और पंच प्रतिक्रमण, चार कर्मग्रंथ (सार्थ), ज्ञानसार, शांत सुधारस, उपमिति-भव-प्रपंचा कथा आदि का अध्ययन भारतीबहनने भी कर लिया । उनकी शादी के करीब डेढ साल के बाद जतीनभाई के मातृश्री का स्वर्गवास हो गया, तब तक भारतीबहनने उनकी बेजोड़ सेवा की । मातृश्री के स्वर्गगमन के ८॥ साल बाद जतीनभाई के छोटे भाई अमित की शादी हुई तब तक दोनों को संसारमें रहना पड़ा। अब मानो दोनों के चारित्र मोहनीय कर्म का उदयकाल पूरा हो रहा था, इसीलिए उनके परमोपकारी पूज्यपाद आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. का चातुर्मास सं. २०४६ में कोईम्बतुर हुआ, उससे पहेले वे बेंग्लोर पधारे । संयम प्राप्ति की भावना होते हुए भी संयम की उपलब्धि शत प्रतिशत शंकास्पद थी, ऐसे विषम समयमें आचार्य भगवंतश्रीने सामने से जतीनभाई का संपर्क किया और जतीनभाई के दीक्षा-गुरु पू. जयसोमविजयजी म.सा. के माध्यम से उस संपर्क-सांनिध्य को दृढ बनाते गये । समय समय पर हितशिक्षा के द्वारा संयम मार्ग में आगे बढने के लिए प्रेरणा भी देते रहे । इसलिए जतीनभाई उनके मार्गदर्शन के मुताबिक दीक्षाकी तैयारी करने लगे । उन महापुरुषकी अमीदृष्टि से प्रतिकूलताएँ भी अनुकूलतामें परिवर्तित होने लगीं । पहले दीक्षा देने के लिए असहमत ऐसे पिताजी भी अब संमत हो गये । छोटे भाई अमितने गृहस्थ जीवनका भार सम्हाल लिया । और सबसे अधिक अनुकूलता तो यह हुई कि भारतीबहन - जो पापभीरु के साथ साथ संयमभीरु भी थी, उसने भी अपने पतिदेव के कदमों पर चलने का निर्णय कर लिया। उनके मातृहृदया गुरुणी विदुषी
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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