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________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १४३ तीर्थंकर नाम कर्म को निकाचित किया था, उसी प्रकार 'संयम कब ही मिले' की प्रशस्त भावना से राजा महेन्द्रपाल ने, गृहस्थ फिर भी ब्रह्मचर्य प्रेम से चंद्रवर्मा राजाने, ज्ञान योग से जयंत राजाने, चारित्रपद की उपबृंहणा से अरूणदेवने, तप धर्म की आराधना से कनककेतु राजवी ने, श्रावक अवस्था से ही तो तीर्थंकर नाम-कर्म उपार्जित कर लिया है । वैसे ही अन्य सभी पदों की आराधना करने वाले श्रावक-राजा द्वारा तीर्थपति बनने का सौभाग्य शास्त्रों में देखने मिलता है। ऐसे श्रावक कृतव्रतकर्मादि ६ लक्षण युक्त, अक्षुद्रतादि २१ गुण युक्त, छह कर्तव्यों के पालन कर्ता, या फिर "मन्ह जिणाणं " में दिखाये ३६ कर्तव्य के अनुगामी और १२ व्रतधारी होते हैं । तथा प्रकार के कर्मों से संयम ग्रहण करने में भाग्य का साथ नहीं होता फिर भी संयमी के प्रति उच्च आदर द्वारा श्रमणोपासक का नाम सार्थक करते हैं । लोगस्स, उवसग्गहरं, जयवीयरायादि सूत्रों से प्रार्थित बोधिलाभ उनको फलता है, फूलता है और वैसी श्रेष्ठ श्रावकधर्मसाधना की नींव जिन जिन आराधनाओं के माध्यम से पड़ती है, वैसी आराधनाओं के दृष्टांत इस पुस्तक के कुछ उदाहरण बन भी सकते हैं । इस प्रसंग पर सार्मिकभक्तिप्रेमी पुणिया श्रावक, भावविभोर जीरण सेठ, श्रद्धा संपन्ना सुलसा, साधुदानप्रेमी अनुपमा देवी जैसे श्रावक-श्राविकाओं को याद कर लें जो कि प्राचीन अर्वाचीन, काल की ही तो उपज हैं । गुरु म.सा. के काल-धर्म के शोक में १२-१२ साल तक अन्नाहार का त्याग करने वाला भीम श्रावक, मौन-साधना का साधक सुव्रतसेठ, सदाचारप्रेमी सुदर्शन श्रेष्ठी, तीर्थस्थापक धन्ना पोरवाल आदि अनेक श्रावकोत्तमों से जिनशासन शोभित है। _ 'न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्' की सत्योक्ति को सार्थक करने के लिए मानो ऐसे श्रावकों ने देव-गुरु-धर्म को अपना जीवन न्योछावर कर दिया।
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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