SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ११७ ___ "बचपन से ही एक पैर से विकलांग होने की वजह से मेरे माता पिता आदि मेरी पढाई में विशेष दिलचश्पी लेते थे, अत: ८ वीं कक्षा तक मैं स्कूलमें प्रायः प्रथम नंबरमें पास होता था । मैं पढने के लिए मेरे एक जैन मित्र जितेन्द्र के घर जाता था । उसके घरके वातावरण का मुझ पर भारी प्रभाव पड़ा । एक दिन जितेन्द्र के माता-पिताने मुझे कहा कि "दिलीप ! तू विकलांग है, क्योंकि तूने पिछले जन्ममें जरूर कोई बड़ा पाप किया होगा, अतः प्रकृतिने तुझे यह सजा दी है। तो अब अगर अधिक दुःखी नहीं होना है तो तू इस जीवनमें व्यसन और पापका सेवन नहीं करना और जीवदयामय जैन धर्म का पालन कर" । यह सुनकर मैं गहरे सोच विचारमें उतर गया । क्योंकि हमारे घरमें अण्डे, मांस, शराब आदिका सेवन और जीवहत्या करना सहज बात थी । मैं भी यह सब करता था । इसलिए उपरोक्त बात सुनकर मैं मेरे दोस्त जितेन्द्र की बहन महाराज साहब के पास गया । उनकी प्रेरणा से मैंने उपरोक्त सभी पापों का त्याग किया एवं जैन साहित्य का वांचन शुरु किया । धीरे धीरे मेरा मन मजबूत होता गया । तीन वर्षके बाद मैंने वर्धमान तपकी १०० ओली के तपस्वी प. पू. पं. श्री कनकसुंदरविजयजी म.सा. को मेरे गुरु के रूपमें स्वीकार किया और उनके आशीर्वाद एवं आज्ञासे मैं जैन धर्मकी आराधना करने लगा । आयंबिल की ओली, कषाय जय तप, तीर्थयात्रा, धार्मिक शिबिर आदिमें मैं भाग लेने लगा । आज मैं एकदम बदल गया हूँ । भक्तामर स्तोत्र और पंच प्रतिक्रमण सूत्र आदि को कंठस्थ करनेमें गुरु कृपासे मुझे सफलता मिली है । मैं बच्चों को ट्यूशन देता हूँ उसके साथ साथ धार्मिक ज्ञान भी देता रहता हूँ। मेरे विद्यार्थीओं के साथ मैंने एक धार्मिक शिबिरमें भाग लिया था । उस शिबिरमें मेरा एक विद्यार्थी प्रथम नंबरमें उत्तीर्ण हुआ था । अतः शिबिर के समापन समारोहमें उस विद्यार्थी के साथ मेरा भी बहुमान किया गया था । सं. २०५२ में भाद्रपद पूर्णिमा के दिन शंखेश्वर तीर्थमें पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. द्वारा संपादित बहुरत्ना वसुंरा
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy