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________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १९ - ५५ मुस्लिम युवकने पिताकी संपत्ति (विरासत ) छोड़ दी मगर जैन धर्म नहीं छोड़ा ! अहमदाबाद के पालड़ी विस्तारमें रहते हुए मुस्लिम युवक सुलेमानने अपने साथ नौकरी करती हुई एक जैन कन्या (गुण संवत्सर जैसे महान तपके आराधक एक मुनिराजकी संसारी अवस्थाकी बेटी) के साथ प्रेमलग्न किया । आज से करीब २० साल पूर्व वह युवक धर्मचक्र तप- प्रभावक प. पू. पंन्यासप्रवर श्री जगवल्लभविजयजी म.सा. ( हाल आचार्यश्री ) के परिचयमें आया । महाराज साहबने उसको जैन धर्म का स्वरूप समझाया एवं मुस्लिम धर्म के कुछ पारिभाषिक शब्दोंका जैन धर्मकी दृष्टिसे अर्थघटन करके बताया । जैसे कि अल्ला = जो किसीकी ला- ल्हाय-हाय नहीं लेता है वह जैन साधु । अकबर = जिसकी कब्र नहीं होती अर्थात् जिसकी कभी भी मृत्यु नहीं होती है वह अर्थात् सिद्ध भगवंत । खुदा = जो खुदको अर्थात् अपनी आत्माको जाने वह अर्थात् अरिहंत परमात्मा । फलत : उस युवकको जैन धर्मके प्रति अत्यंत आदर उत्पन्न हुआ । पूज्य श्रीकी प्रेरणासे उसने मांस, मदिरा एवं जमीकंदका हमेशा के लिए त्याग किया । वह हररोज जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करता है और रविवार को पासके गाँवमें जाकर जिनपूजा भी करता है । प्रतिदिन नवकार महामंत्र का भावपूर्वक स्मरण करता है । उसके माता- पिताने उसे कहा कि 'तू जैन धर्म छोड़ दे नहीं तो तुझे विरासत का वारिस नहीं बनाया जायेगा' । तब उसने गौरव के साथ प्रत्युत्तर दिया कि 'मुझे पिताजीकी संपत्ति नहीं मिलेगी तो चलेगा, मगर
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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