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________________ ५३ निसीहज्झयणं किमि-पदं कृमि-पदम् ४०.जे भिक्खू अप्पणो पालुकिमियं वा यो भिक्षुः आत्मनः पायुकृमिकं वा कुच्छिकिमियं वा अंगुलीए कुक्षिकृमिकं वा अंगुल्या निवेश्य-निवेश्य णिवेसिय-णिवेसिय णीहरति, निस्सरति, निस्सरन्तं वा स्वदते। णीहरंतं वा सातिज्जति॥ उद्देशक ३: सूत्र ४०-४६ कृमि-पद ४०. जो भिक्षु अपने अपान की कृमि अथवा कुक्षि की कृमि को अंगुली डाल-डाल कर निकालता है अथवा निकालने वाले का अनुमोदन करता है। णह-सिहा-पदं नखशिखा-पदम् नखशिखा-पद ४१. जे भिक्खू अप्पणो दीहाओ णह- यो भिक्षुः आत्मनः दीर्घाः नखशिखाः ४१. जो भिक्षु अपनी दीर्घ नखशिखा (नख के सिहाओ कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कल्पेत वा संस्थापयेद्वा, कल्पमानं वा अग्रभाग) को काटता है अथवा व्यवस्थित कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति। संस्थापयन्तं वा स्वदते। करता (संवारता) है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता दीह-रोम-पदं ४२. जे भिक्खू अप्पणो दीहाई जंघ रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति। दीर्घरोम-पदम् यो भिक्षुः आत्मनः दीर्घाणि जंघारोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते। दीर्घरोम-पद ४२. जो भिक्षु अपनी जंघाप्रदेश (पिंडली) की दीर्घ रोमराजि को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता पा ४३. जे भिक्खू अप्पणो दीहाई वत्थि रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति॥ यो भिक्षुः आत्मनः दीर्घाणि वस्तिरोमाणि ४३. जो भिक्षु अपनी वस्तिप्रदेश की दीर्घ कल्पेत वा संस्थापयेद्वा, कल्पमानं वा रोमराजि को काटता है अथवा व्यवस्थित संस्थापयन्तं वा स्वदते। करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है। ४४. जे भिक्खू अप्पणो दीह-रोमाइं यो भिक्षुः आत्मनः दीर्घरोमाणि कल्पेत ४४. जो भिक्षु अपनी दीर्घ रोमराजि को काटता कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने संठवेंतं वा सातिज्जति॥ संस्थापयन्तं वा स्वदते। अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है। ४५. जे भिक्खू अप्पणो दीहाइं यो भिक्षुः आत्मनः दीर्घाणि कक्षारोमाणि ४५. जो भिक्षु अपनी कक्षाप्रदेश (कांख) की कक्खाण-रोमाइं कप्पेज्ज वा कल्पेत वा संस्थापयेद्वा, कल्पमानं वा दीर्घ रोमराजि को काटता है अथवा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते। व्यवस्थित करता है और काटने अथवा सातिज्जति॥ व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता ४६. जे भिक्खू अप्पणो दीहाई मंसु- यो भिक्षुः आत्मनः दीर्घाणि श्मश्रुरोमाणि ४६. जो भिक्षु अपनी श्मश्रु (मूंछ) की दीर्घ रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कल्पेत वा संस्थापयेद्वा, कल्पमानं वा रोमराजि को काटता है अथवा व्यवस्थित
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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