SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निसीहज्झयणं ३९ उद्देशक २: टिप्पण अपरिशाटी-यह प्रायः फलकमय होता है।' जो तृण जिस पुंज से ले, उनको वहीं स्थापित करे। जिन्हें पार्श्वभाग से ले उन्हें पार्श्वभाग में रखे यह तृणों का विकरण है। फलक को यथास्थान रखना, कंबिकाओं को खोलना-यह अपरिशाटी शय्या-संस्तारक का विकरण है। विकरण किए बिना शय्यासंस्तारक लौटाने वाला भिक्षु आज्ञाभंग, अनवस्था आदि दोषों को प्राप्त होता है।' यदि कोई व्याघात हो और शय्या-संस्तारक को यथास्थान ले जाकर रखना संभव न हो तो उन्हें वहीं स्थान पर रख दे लेकिन उनका विकरण अवश्य करे-उनको व्यवस्थित करके ही छोड़े।' ३२. सूत्र ५५ भिक्षु शय्या-संस्तारक चाहे शय्यातर के घर से प्राप्त करे अथवा अन्य गृहस्थ से प्रातिहारिक रूप में लाए, उसे उसकी सुरक्षा के प्रति भी जागरूक रहना होता है। कदाचित् सुरक्षा के प्रति जागरूक रहने पर भी शय्या-संस्तारक का अपहरण हो जाए, तो उसकी अन्वेषणा करनी चाहिए। जो भिक्षु विप्रणष्ट-खोए हुए शय्यासंस्तारक की खोज नहीं करता, वह आज्ञाभंग, अनवस्था, अप्रत्यय, अपयश आदि दोषों को प्राप्त होता है। भाष्यकार ने शय्या-संस्तारक खोने के कुछ कारणों का निर्देश किया है यथा • गृहस्थ के घर से लाते समय अथवा प्रत्यर्पण हेतु ले जाते समय वसति से बाहर छोड़ दिया हो। • प्रतिलेखन हेतु अथवा संसक्त हो जाने पर धूप में देने के लिए वसति से बाहर रखा गया हो। .म्लेच्छभय, अग्नि, बाढ़ आदि के संभ्रम (हड़बड़ी) अथवा गांव उजड़ने आदि कारणों से वसति सूनी छोड़ दी गई हो।' प्रस्तुत सन्दर्भ में भाष्यकार ने शून्य वसति तथा बाल अथवा ग्लान भिक्षु को वसतिपाल रूप में स्थापित करने के दोष तथा खोए हुए संस्तारक को पुनः प्राप्त करने की विविध विधियों की विस्तार से चर्चा की है। तुलना हेतु द्रष्टव्य-कप्पो ३/२७ का टिप्पण। ३३. सूत्र ५६ जो भिक्षु प्रतिलेखना में जागरूक नहीं होता, वह षड्जीवनिकाय का विराधक होता है। अतः अहिंसा महाव्रत की सम्यक् आराधना के लिए अपेक्षित है कि भिक्षु यथासमय अपने समस्त प्रतिलेखनीय उपकरणों की प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना करे। प्रतिलेखना का अर्थ हैदृष्टि (चक्षुदर्शन) से देखना एवं प्रमार्जना का अर्थ है-झाड़कर साफ करना, रजोहरण, गोच्छग आदि से साफ करना । उत्तरज्झयणाणि के छब्बीसवें अध्ययन में प्रतिलेखना, प्रतिलेखनकाल तथा प्रतिलेखना के गुण और दोषों का विस्तृत विवरण मिलता है। प्रस्तुत सूत्र में इत्वरिक उपधि की प्रतिलेखना न करने पर भी मासलघु प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। भाष्यकार के अनुसार इत्वरिक पद से जघन्य एवं मध्यम उपधि का ग्रहण होता है।" चूर्णिकार के अनुसार इत्वरिक के ग्रहण से सारे उपकरणों का ग्रहण होता है।१२ १. बृभा. वृ. पृ. १२४२-परिशाटी तृणादिमयः, अपरिशाटी फल कादिमयः। २. निभा. गा. १३१२ ३. वही, गा. १३११, १३१२ सचूर्णि ४. वही, गा. १३१० ५. वही, गा. १३१३ सचूर्णि ६. वही, गा. १३५६,१३५७ (सचूर्णि) ७. वही, गा. १३५५ ८. वही, गा. १३१४-१३८४ ९. उत्तर. २६/३० १०. निभा. २ चू. पृ. १९३-चक्खुणा पडिलेहणा।.....मुहपोत्तिय रयहरण-गोच्छगेहिं पमज्जणा। ११. वही, गा. १४३५-इत्तरिओ पुण उवधी, जहण्णओ मज्झिमो य णातव्वो। १२. वही, भा. २, पृ. १८७-इत्तरियगहणेण सव्वोवकरणगहणं कयं ।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy