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________________ उद्देशक २ : टिप्पण २३. सूत्र ३९-४१ प्रस्तुत आलापक में अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ के साथ भिक्षु का तथा अपारिहारिक के साथ पारिहारिक का क्या व्यवहार होना चाहिए इसका निर्देश प्राप्त होता है। अन्यतीर्थिकचरक, परिव्राजक, शाक्य, आजीवक आदि तथा ब्राह्मण आदि भिक्षाजीवी गृहस्थ भी अपना जीवनयापन भिक्षावृत्ति से करते हैं। तथा पारिहारिक भ्रमण भी अपना जीवनयापन भिक्षाचर्या से करते हैं किन्तु भिक्षु को उनके साथ-साथ भिक्षाचर्या हेतु गृहस्थ कुल में नहीं जाना चाहिए। उद्युक्त विहारी भ्रमण यदि गृहस्थ, अन्यतीर्थिक अथवा शिथिलाचारी श्रमण के साथ भिक्षार्थ प्रवेश करे तो षड्जीवनिकाय के वध की अनुमोदना, अंतराय, अप्रियता, कलह, प्रद्वेष आदि दोषों की संभावना रहती है, शासन की अप्रभावना का प्रसंग आ सकता है । " इसी प्रकार उनके साथ स्वाध्याय भूमि एवं संज्ञा भूमि में जाने से तथा विहार करने पर भी इन्हीं दोषों की संभावना रहती है। अतः भिक्षु को इनसे पृथक् भिक्षा आदि के लिए जाना चाहिए। संयोगवश कहीं उनसे आगे पीछे किसी घर में प्रविष्ट हो भी जाए तो अन्यभाव प्रदर्शित करे ताकि उन्हें या दाता को यह ज्ञात न हो कि वह उनके साथ आया है। ज्ञातव्य है कि जहां गृहस्थ या अन्यतीर्थिक से पृथक् स्वाध्यायभूमि न हो, वहां अनागादयोगी मानसिक अनुप्रेक्षा करे। केवल आगाढ़योगी (जिसे यथासमय श्रुत का उद्देश, समुद्देश आदि अनिवार्यतः करना होता है उस) के लिए गृहस्थ आदि के साथ स्वाध्याय करना अपवादपद में विधि सम्मत है। ' आयारचूला में भी गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिक के साथ भिक्षार्थगमन, विचारभूमि एवं विहारभूमि में गमन आदि पदों का निषेध निर्दिष्ट है।' शब्द विमर्श १. परिहारी उद्यतविहारी, जो आधाकर्म आदि एषणा १. निभा. गा. १०८५, १०८६ । २. वही, भा. २ पृ. १२० - गिहत्व अण्णतित्थिए पुष्पविडे सर्व वा पुव्वपविट्ठो 'अण्णभावे' त्ति एरिसं भावं दरिसति जेण ण णज्जति, जहा एतेण समाणं हिंडति । ३. वही, पृ. १२१ आगाडजो उससमुसादओ अवस्सं कायव्या, उबस्सए व असज्झाइयं, यहि पडिणीयादि, अतो तेण समाणं तुं तो सुद्धो । ४. आचू. ११८-१० ५. निभा १०८१ आहाकम्मादीणिकाए सावज्जोगकरणं च । परिहारितपरिहरं, अपरिहरतो अपरिहारी। ६. वही, भा. २, चू. पू. ११८- पिंडो असणादी, गिहिणा दीयमाणस्स पिंडस्य पात्रे पातः अनया प्रज्ञया । ७. वही ३६ निसीहज्झयणं दोषों तथा षड्जीवनिकाय समारम्भ आदि सावद्य योगों का परिहार करता है। २. अपरिहारी - सावद्य की वर्जना न करने वाला साधु । " ३. पिण्डपातप्रतिज्ञा - गृहस्थ के द्वारा दिए जाते हुए अशन आदि को ग्रहण करने के संकल्प अथवा प्रज्ञा से चूर्णिकार ने इसे सूत्रपातप्रतिज्ञा, धान्यपातप्रतिज्ञा आदि शब्दप्रयोग के दृष्टान्त से समझाया है। ४. विचारभूमि -संज्ञा विसर्जन का स्थान ।' ५. विहारभूमि - स्वाध्याय करने का स्थान । ' २४. सूत्र ४२,४३ भिक्षु के लिए निर्देश है कि वह गृहीत आहार अथवा पानक, चाहे वह मनोज्ञ हो या अमनोज्ञ, सब कुछ खा ले, छोड़े नहीं ।" जो भिक्षु मनोज्ञ आहार अथवा पानक को खाता या पीता है और अमनोज का परिष्ठापन करता है, वह मायिस्थान का स्पर्श करता है अतः भिक्षु ऐसा न करे ।" इस गृद्धि के कारण वह अंगारदोष का सेवन करता है, लोभ एवं रसलोलुपता के कारण एषणा के अन्यान्य दोषों का सेवन करता हुआ वह दुर्गति को प्राप्त करता है। भाष्यकार ने इन दोषों से बचने के लिए एक सुन्दर विधि का निर्देश दिया है गुरु, अतिथि ग्लान आदि को प्रायोग्य आहार परोसने के बाद मंडली - रानिक सारे अविरोधी द्रव्यों को मिला दे, ताकि सबको समान भोजन मिल सके।" शब्द विमर्श १. जात-प्रस्तुत सूत्रद्वयी में भोजन और पानक दोनों के साथ 'जात' शब्द का प्रयोग हुआ है। जात शब्द के दो अर्थ हैं - १. प्रासुक" और २. प्रकार । १४ २. सुम्मि मनोज, जो भोजन शुभ वर्ग, रस, गन्ध एवं स्पर्श से युक्त हो अथवा सुगन्ध युक्त हो। ३. दुब्भि - अमनोज्ञ, जो भोजन शुभ वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श से रहित हो अथवा दुर्गन्ध युक्त हो।" ८. वही, पृ. १२० सणावोरिणभूमि विचारभूमी ९. वही असझाए सम्झायभूमी जा सा विहारभूमी । १०. आचू. १।१२५ ११. वही, १।१२५, १२६ १२. निभा. १११९ तम्हा विधीए भुंजे दिण्णम्मि गुरूण सेस रातिणितो । भुयति करंबेऊणं, एवं समता तु सव्वेसिं ॥। १३. वही, भा. २ चू. पृ. १२३ - जातग्रहणात् प्रासुकं । १४. वही, पृ. १२६ - जातमिति प्रकारवाचकः । १५. वही, गा. १११२,१११३ वणेण य गंधेण य, रसेण फासेण जं तु उववेतं । तं भोयणं तु सुब्भिं, तव्विवरीयं भवे दुब्भिं ॥ रसालमवि दुग्धं भोषणं तु न पूतं । सुगंधमालं पितं ते सुब्धं तु ॥
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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