SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उद्देशक २ : टिप्पण उपलब्ध न हो तो सोपान, संक्रम अथवा आलम्बन बनाना अपेक्षित होता है। प्रस्तुत सूत्र में उत्सर्गतः सोपान आदि बनाने का निषेध किया गया है। उपर्युक्त कारणों से यदि सोपान आदि बनाना अनिवार्य हो तो निर्माता भिक्षु जितेन्द्रिय, दयालू और दक्ष हो। यह गृहस्थ अवस्था में इन कार्यों को कर चुका हो, गीतार्थ हो तथा उपयुक्त होकर सोपान, संक्रम आदि का निर्माण करे। तथा कार्यसम्पन्न के बाद इनका विकरण - विनाश कर दें। ५. सूत्र ११ जहां वसति में वर्षा का पानी रुक जाने के कारण मुख्य द्वार, आवागमन एवं उठने-बैठने के स्थान में कीचड़ हो जाए, निरन्तर गीले उपाश्रय में काई, हरियाली या द्वीन्द्रिय आदि जीवों की उत्पत्ति से संयमविराधना एवं अजीर्ण आदि रोगों से आत्मविराधना की संभावना हो, वहां अन्य उपाश्रय के अभाव में गीतार्थ एवं जितेन्द्रिय आदि गुणों से सम्पन्न भिक्षु यतनापूर्वक पानी निकालने की नाली का निर्माण कर सकता है। इस प्रकार यह निषेध औत्सर्गिक है। ६. सूत्र १२ बाढ़, नदी उत्तरण, दीर्घ अटवी आदि आपवादिक परिस्थितियों में अन्य लिंग धारण करने हेतु, ग्लानार्थ औषध रखने हेतु संपातिम जीवों से आहार आदि की सुरक्षा हेतु यदि छींका या छींके का ढक्कन रखना अपेक्षित हो तो भिक्षु पूर्वकृत छींके और उसके ढक्कन की गवेषणा करे । उसके अभाव में गीतार्थ भिक्षु यतनापूर्वक इनका निर्माण कर सकता है । " I ७. सूत्र १३ भिक्षु निम्नांकित प्रयोजनों से पांच प्रकार की चिलिमिली रख सकता है • चोर, म्लेच्छ आदि का भय हो, वहां मूल्यवान उपधि की प्रतिलेखना हेतु । • गृहस्थों से आकीर्ण स्थान में उड्डाह (अपवाद) का वर्जन करने के लिए आहार के समय । १. निभा. गा. ६२६,६२७ जिइंदियो पिणी दक्खो पुव्वं तक्कम्मभावितो । उवत्तो जती कुज्जा, गीयत्थो वा असागरे । कतकज्जे तु मा होज्जा, तओ जीवविराधणा । मोत्तुं तज्जाय सोवाणे, सेसे विकरणं करे ।। २. वही, गा. ६३६ पणगाति हरित मुच्छण, संजम आता अजीरगेलण्णे । हिता वि आयसंजम, उवधीणासो दुगंछा य ।। ३. वही, गा. ६४२ बितियपदवूढज्झामित हरियऽद्धाणे तहेव गेलपणे । असिवादि अण्णलिंगे, पुण्यकताऽसति सयं करणं ।। ३२ निसीहज्झयणं • जहां निरन्तर स्त्रियां दिखती हों, उस उपाश्रय में ब्रह्मचर्य सुरक्षा हेतु । जहां रक्त, मल, मूत्र आदि अशुचि पदार्थों के कारण स्वाध्याय में बाधा हो अथवा मल आदि की दुर्गन्ध के कारण अस्वाध्यायी हो, वहां स्वाध्याय के लिए। जहां सम्पातिम जीवों का प्राचुर्य हो, वहां जीव दया के लिए । रोगी के आहार, नीहार, विश्राम, औषध आदि के लिए एकान्त अपेक्षित हो । द्वारस्थगन, मृत परिष्ठापन आदि अन्य प्रयोजनों में। यदि पूर्वकृत चिलिमिली उपलब्ध न हो तो भिक्षु चतनापूर्वक चिलिमिली का निर्माण करे। प्रस्तुत सूत्र में उत्सर्गतः निष्प्रयोजन अथवा कारण में अयतना से चिलिमिली का निर्माण करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। विस्तार हेतु द्रष्टव्य- कप्पो १/१८ का टिप्पण, निभा. गा. ६५१-६६१ एवं बृभा. गा. २३७४- २३८१ ८. सूत्र १४-१७ प्रस्तुत आगम के प्रथम उद्देशक में गृहस्थ या अन्यतीर्थिक से सूई, कैंची आदि का परिष्कार करवाने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत आलापक में उनका स्वयं परिष्कार करने का प्रायश्चित्त है। भिक्षु इन औपग्रहिक उपकरणों के परिष्कार में समय एवं श्रम लगाए तो उसके स्वाध्याय में व्यापात, संयमविराधना, आत्मविराधना आदि दोष संभावित हैं। ९. सूत्र १८ स्नेहरहित, निष्पिपास (स्पृहारहित) वचन परुष वचन कहलाता है । " भाष्यकार ने परुष वचन के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ये चार भेद करते हुए उनका विस्तृत, व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत किया है। परुष वचन सावद्य है, क्रोध, द्वेष आदि से उत्पन्न होता है, सूक्ष्म मानसिक हिंसा का हेतु है अतः भिक्षु के लिए उसका स्वल्प प्रयोग भी निषिद्ध है। ४. वही, गा. ६५५, ५६ ५. ६. सागारिय-सज्झाए पाणदय - गिलाण - सावयभए वा । अद्धाणमरण वासासु चेव सा कप्पति गच्छे ।। पडिलेहोभयमंडलि इत्थीसागारिएत्थ सागरिए । घाणालोगज्झाए, मच्छियडोलादिपाणा ।। वही, भा. ३ चू. पृ. २- प्रणय-नेह णित्तण्हं फरुसं । (क) वही, गा. ८५२ - दव्वे खेत्ते काले भावम्मि य लहुसगं भवे फरुसं । (ख) विस्तार हेतु द्रष्टव्य वही, गा. ८५३-८६६ ।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy