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________________ उद्देशक २: सूत्र २५-३३ २६ निसीहज्झयणं २५. जे भिक्खू दंडगं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूइयं वा सयमेव परिघट्टेति वा संठवेति वा जमावेति वा, परिघट्टेतं वा संठवेंतं वा जमातं वा सातिज्जति॥ यो भिक्षुः दण्डकं वा यष्टिकां वा २५. जो भिक्षु दण्ड, लाठी, अवलेखनिका अवलेखनिकां वा वेणुसूचिकां वा स्वयमेव अथवा बांस की सूई का स्वयं ही घर्षण परिघट्टति वा संस्थापयति वा 'जमावेति' करता है, संस्थापन करता है अथवा विषम वा, परिघट्टन्तं वा संस्थापयन्तं वा को सम करता है अथवा घर्षण करने वाले, 'जमात' वा स्वदते। संस्थापन करने वाले अथवा विषम को सम करने वाले का अनुमोदन करता है।५ प्रतिग्रह-पदम् पडिग्गह-पदं २६. जे भिक्खू णियग-गवेसियं पडिग्गहगं धरेति, धरेंतं वा सातिज्जति॥ यो भिक्षुः निजक-गवेषितं प्रतिग्रहं धरति, धरन्तं वा स्वदते । प्रतिग्रह-पद २६. जो भिक्षु निजक-स्वजन के द्वारा गवेषित पात्र को धारण करता है अथवा धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। २७. जे भिक्खू पर-गवेसियं पडिग्गहगं धरेति, धरेतं वा सातिज्जति॥ यो भिक्षुः पर-गवेषितं प्रतिग्रहं धरति, धरन्तं वा स्वदते। २७. जो भिक्षु अस्वजन (जिसका संबंध गृहस्थ जीवन से नहीं है) के द्वारा गवेषित पात्र को धारण करता है अथवा करने वाले का अनुमोदन करता है। २८. जे भिक्खू वर-गवेसियं पडिग्गहगं धरेति, धरतं वा सातिज्जति।। यो भिक्षुः वर-गवेषितं प्रतिग्रहं धरति, धरन्तं वा स्वदते। २८. जो भिक्षु प्रवर अथवा सम्मान्य व्यक्ति के द्वारा गवेषित पात्र को धारण करता है अथवा धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। २९.जे भिक्खू बल-गवेसियं पडिग्गहगं धरेति, धरतं वा सातिज्जति॥ यो भिक्षुः बल-गवेषितं प्रतिग्रहं धरति, धरन्तं वा स्वदते। २९. जो भिक्षु बल-प्रभुत्व सम्पन्न व्यक्ति के द्वारा गवेषित पात्र को धारण करता है अथवा धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। ३०.जे भिक्खूलव-गवेसियं पडिग्गहगं धरेति, धरेतं वा सातिज्जति। यो भिक्षुः लव-गवेषितं प्रतिग्रहं धरति, धरन्तं वा स्वदते। ३०. जो भिक्षु लव-दान फल के निरूपण द्वारा गवेषित पात्र को धारण करता है अथवा धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। नितिय-पदं नैत्यिक-पदम् नैत्यिक-पद ३१. जे भिक्खू नितियं अग्गपिंड यो भिक्षुः नैत्यिकम् अग्रपिण्डं भुङ्क्ते, ३१. जो भिक्षु नैत्यिक ७ अग्रपिण्ड-श्रेष्ठ भुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति॥ भुञ्जानं वा स्वदते। आहार" भोगता है अथवा भोगने वाले का अनुमोदन करता है। ३२. जे भिक्खू नितियं पिंड भुंजति, यो भिक्षुः नैत्यिकं पिण्डं भुङ्क्ते, भुञ्जानं ३२. जो भिक्षु नैत्यिक पिण्ड भोगता है अथवा भुजंतं वा सातिज्जति॥ वा स्वदते। भोगने वाले का अनुमोदन करता है। ३३. जे भिक्खू नितियं अवडूं भुजति, यो भिक्षुः नैत्यिकम् अपार्धं भुङ्क्ते, ३३. जो भिक्षु नैत्यिक पिण्ड के अपार्ध-अर्ध
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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