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उद्देशक १ : टिप्पण
४. संबाधन मर्दन करना, दबाना । ५. परिमर्दन - बार - बार मर्दन करना ।
६. अभ्यंगन - एक बार मालिश करना या थोड़े तेल, घी आदि से मालिश करना ।
७. प्रक्षण - बार-बार मालिश करना या अधिक द्रव्य से मालिश करना।
८. कल्क अनेक द्रव्यों के संयोग से निर्मित लेप्य पदार्थ स्नान द्रव्य, विलेपन द्रव्य या गन्धाट्टक । *
९. लोध-सुगन्धित द्रव्य, गन्ध द्रव्य ।"
१०. ण्हाण - उड़द आदि का चूर्ण।'
११. स्नान - सुगन्धित चूर्ण, गन्ध चूर्ण । ७
१२. वर्ण- चन्दन आदि का चूर्ण, अंगराग, लेपन, केसर, एक रंगीन द्रव्य ।'
१३. चूर्ण विशेष - वर्धमान चूर्ण, पटवास आदि ।
१४. उद्वर्तन- पीठी, लेप या उबटन करना। "
१५. 1. परिवर्तन - बार-बार उबटन करना । ११
अभ्यंगन एवं उद्वर्तन में अन्तर
(१) अभ्यंगन स्निग्ध पदार्थों से होता है। उद्वर्तन की वस्तुएं रूक्ष एवं कोमल होती हैं।
(२) अभ्यंगन विशेष शक्ति एवं श्रम सापेक्ष होता है। जबकि उद्वर्तन में विशेष श्रम एवं शक्ति अपेक्षित नहीं ।
(३) अभ्यंगन त्वचा से अस्थिपर्यन्त लाभप्रद होता है । उद्वर्तन मुख्यतः त्वचा के लिए लाभप्रद होता है।
१५. उत्क्षालन - एक बार धोना । १६. प्रधावन - बार-बार धोना ।
१७. निश्छलन - अंगादान के अग्रभाग की त्वचा का
१. निभा. भा. २ चू. पृ. २१२-संबाहण त्ति विस्सामणं ।
२. वही, पृ. २७- परिमदति पुणो पुणो ।
३. वही, पृ. २७ – अब्भंगेति एक्कसि, मक्खति पुणो पुणो | अहवा-वेण अब्भंगणं, बहुणा मक्खणं ।
४. द्रष्टव्य-दसवे ६ १६३ का टिप्पण ।
५. द्रष्टव्य - वही ।
६. निभा. भा. २ चू. पृ. २७- पहाणं ण्हाणमेव । अहवा उवण्हाण भणति तं पुण भाषचूर्णादि।
७. (क) वही - सिणाणं-गंधियावणे अंगाघंसणयं वुच्चति ।
(ख) द्रष्टव्य दसवे० ६ १६३ का टिप्पण ।
८. (क) निभा.भा. २ चू. पृ. २७- वण्णओ जो सुगंधो चंदणादिचूर्णानि । (ख) आप्टे Saffarom, a coloured unguent or perfume. ९. निमा. आ. २. पृ. २७- मानो, पडवासादि था। १०. वही उयसि एक्कसि । ११. बड़ी परिवसि पुणो पुणो ।
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निसीहज्झयणं
अपनयन करना । १२
५. सूत्र १०
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सचित्त द्रव्य (अतिमुक्तक आदि सचित्त पुष्प आदि) की गंध सूंघने से संयम विराधना एवं आत्म विराधना की संभावना रहती है नासिका से निर्गत गर्म वायु से पुण्य तथा उसके निश्रित जीवों की विराधना होती है। कदाचित् विषपुष्प हो तो सूंघने वाले की मृत्यु भी हो सकती है। अतः पुष्प आदि सचित्त द्रव्य की गंध लेना भिक्षु के लिए निषिद्ध है ।
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६. सूत्र ११-१४
भिक्षु गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक से सोपान, संक्रम, पानी निकालने की नाली, छींका तथा चिलिमिली (पर्दा) नहीं बनवा सकता क्योंकि गृहस्थ और अन्यतीर्थिक तप्त अयोगोलक के समान समन्ततः जीवोपघाती होते हैं। १४ सोपान आदि बनाते समय उनके द्वारा पृथ्वीकायिक, वनस्पतिकायिक तथा तदाश्रित अन्य जीवों की विराधना तथा हाथ, पैर आदि के चोट लगने से आत्मविराधना की संभावना रहती है।
शब्द विमर्श
१. पदमार्ग - ईंट, पत्थर आदि रखकर बनाया गया चलने का रास्ता या सोपान । १६
२. संक्रम-जल या गड्डे आदि को पार करने के लिए काष्ठनिर्मित या पाषाणनिर्मित पुल । १७ (विस्तार हेतु द्रष्टव्य- दसवे. ५/१/४ का टिप्पण)
३. अवलम्बन - चढ़ने उतरने या सहारा लेने का साधन - रस्सी, खंभा आदि । १८
४. दकवीणिका पानी निकालने की नाली।" ५. सिक्कग - छींका ।
१२. वही, पृ. २८ - णिच्छल्लेति त्वचं अवणेति, महामणि प्रकाशयतीत्यर्थः ।
१३. वही, गा. ६१६
णासा मुहणिस्सासा पुण्य तदस्सिताणं च आयाए विसपुष्कं तथावितमच्चदितो ॥
१४. वही, गा. ६३३ - गिहि-अण्णतित्थिएण व अयगोलसमेण आणादी । १५. वही, गा. ६२४
खणमाणे कायवधा, अच्चित्ते वि य वणस्सतितसाणं । खणणेण तच्छणेण व, अहिददुरमाइआ घाए ।
१६. वही, भा. २ चू. पृ. ३३ - पदं पदाणि तेसिं मग्गो पदमग्गो सोपाणा । १७. वही संकमिज्जति जेण सो संकमो काष्ठचारेत्यर्थः ।
१८. वही - अवलंबिज्जति त्ति जं तं अवलंबणं, सो पुण वेतिता मत्तालंबो
वा ।
१९. वही, पृ. ३६- दगं पाणी, तं वीणिया वाहो, दगस्स वीणिया दगवीणिया ।