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________________ निसीहज्झयणं ३९५ वालियासद्दाणि वा अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि घणाणि सदाणि कण्णसोयपडियाए अभिसंधारेति, अभिसंधारेंतं वा सातिज्जति॥ वा अन्यतरान् वा तथाप्रकारान् घनानि शब्दान् कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया अभिसंधारयति, अभिसंधारयन्तं वा स्वदते। उद्देशक १७ : सूत्र १३९-१४२ __ (वाद्य) शब्दों को कान से सुनने की प्रतिज्ञा से जाने का संकल्प करता है अथवा संकल्प करने वाले का अनुमोदन करता है। झुसिरसह-कण्णसोयपडिया-पदं १३९. जे भिक्खू संखहाणि वा वंससहाणि वा वेणुसहाणि वा खरमुहिसहाणि वा परिपरिसदाणि वा वेवासद्दाणि वा अण्णयराणि तहप्पगाराणि झुसिराणि सहाणि कण्णसोयपडियाए अभिसंधारेति, अभिसंधारेंतं वा सातिज्जति॥ शुषिरशब्दकर्णश्रोतःप्रतिज्ञा-पदम् शुषिरशब्द-कर्णश्रोतप्रतिज्ञा-पद यो भिक्षुःशंखशब्दान् वा वंशशब्दान् वा १३९. जो भिक्षु शंख के शब्द, बांस के शब्द, वेणुशब्दान् वा खरमुखीशब्दान् वा वेणु के शब्द, खरमुखी (फौजी ढोल) के 'परिपरि'शब्दान् वा 'वेवा'शब्दान् वा शब्द, परिपरि (सितार जैसा वाद्य) के अन्यतरान् तथाप्रकारान् शुषिराणि शब्द, वेवा के शब्द अथवा अन्य उसी कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया प्रकार के शुषिर (वाद्य) शब्दों को कान से अभिसंधारयति, अभिसंधारयन्तं वा सुनने की प्रतिज्ञा से जाने का संकल्प करता स्वदते। है अथवा संकल्प करने वाले का अनुमोदन करता है। शब्दान् विविहसह-कण्णसोयपडिया-पदं विविधशब्दकर्णश्रोतःप्रतिज्ञा-पदम् विविधशब्द-कर्णश्रोतप्रतिज्ञा-पद १४०. जे भिक्खू वप्पाणि वा फलिहाणि यो भिक्षुः वप्रान् वा परिखाः वा १४०. जो भिक्षु केदार, परिखा, उत्पल, वा उप्पलाणि वा पल्ललाणि वा उत्पलानि वा पल्वलानि वा उज्झरान् वा पल्वल, उज्झर, निर्झर, वापी, पुष्कर, उज्झराणि वा णिज्झराणि वा निर्झरान् वा वापीः वा पुष्कराणि वा दीर्घिका, गुंजालिका, सर, सरपंक्ति वावीणि वा पोक्खराणि वा दीर्घिकाः वा गुजालिकाः वा सरांसि वा अथवा सरसरपंक्ति को कान से सुनने की दीहियाणि वा गुंजालियाणि वा सरःपंक्तीः वा सरःसरःपंक्तीः वा प्रतिज्ञा से जाने का संकल्प करता है अथवा सराणि वा सरपंतियाणि वा कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया अभिसंधारयति, संकल्प करने वाले का अनुमोदन करता है। सरसरपंतियाणि वा कण्णसोय- अभिसंधारयन्तं वा स्वदते । पडियाए अभिसंधारेति, अभिसंधारेंतं वा सातिज्जति॥ १४१. जे भिक्खू कच्छाणि वा यो भिक्षुः कच्छान् वा गहनानि वा नूमानि गहणाणि वाणूमाणि वा वणाणि वा वा वनानि वा वनविदुर्गाणि वा पर्वतानि वण-विदुग्गाणि वा पव्वयाणि वा वा पर्वतविदुर्गाणि वा कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया पव्वय-विदुग्गाणि वा कण्णसोय- अभिसंधारयति, अभिसंधारयन्तं वा पडियाए अभिसंधारेति, अभिसंधारेंतं स्वदते। वा सातिज्जति॥ १४१. जो भिक्षु कच्छ, गहन, नूम, वन, वनविदुर्ग, पर्वत अथवा पर्वतविदुर्ग को कान से सुनने की प्रतिज्ञा से जाने का संकल्प करता है अथवा संकल्प करने वाले का अनुमोदन करता है। १४२. जे भिक्खू गामाणि वा णगराणि यो भिक्षुः ग्रामान् वा नगराणि वा खेटानि वा खेडाणि वा कब्बडाणि वा वा कर्बटानि वा मडम्बानि वा मडंबाणि वा दोणमुहाणि वा __ द्रोणमुखानि वा पत्तनानि वा आकरान् वा पट्टणाणि वा आगराणि वा संबाहाणि सम्बाधान् वा सन्निवेशान् वा वा सण्णिवेसाणि वा कण्णसोय- कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया अभिसंधारयति, १४२. जो भिक्षु ग्राम, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, आकर, संबाध अथवा सन्निवेश को कान से सुनने की प्रतिज्ञा से जाने का संकल्प करता है अथवा संकल्प करने वाले का अनुमोदन करता है।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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