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________________ उद्देशक १७: सूत्र ३९-४२ ३७६ निसीहज्झयणं भगंदलं वा अण्णउत्थिएण वा वा अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा गारत्थिएण वा अण्णयरेणं तिक्खेणं ___ अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन आच्छेद्य सत्थजाएणं अच्छिंदावेत्ता वा वा विच्छेद्य वा पूर्व वा शोणितं वा विच्छिंदावेत्ता वा पूर्व वा सोणियं वा निस्सार्य वा विशोध्य वा णीहरावेत्ता वा विसोहावेत्ता वा शीतोदकविकृतेन वा उष्णोदकविकृतेन सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग- वा उत्क्षाल्य वा प्रधाव्य वा अन्यतरेण वियडेण वा उच्छोलावेत्ता वा आलेपनजातेन आलेप्य वा विलेप्य वा पधोवावेत्ता वा अण्णयरेणं तैलेन वा घृतेन वा वसया वा नवनीतेन आलेवणजाएणं आलिंपावेत्ता वा वा अभ्यज्य वा म्रक्षयित्वा वा अन्यतरेण विलिंपावेत्ता वा तेल्लेण वा घएण वा धूपनजातेन धूपयेद् वा प्रधूपयेद् वा, वसाए वा णवणीएण वा धूपयन्तं वा प्रधूपयन्तं वा स्वदते। अब्भंगावेत्ता वा मक्खावेत्ता वा अण्णयरेणं धूवणजाएणं धूवावेज्ज वा पधूवावेज्ज वा, धूवावेंतं वा पधूवावेंतं वा सातिज्जति॥ फुसी, अर्श अथवा भगन्दर का किसी तीक्ष्ण शस्त्रजात से आच्छेदन अथवा विच्छेदन करवाकर, उसके पीव अथवा रक्त को निकलवाकर अथवा साफ करवाकर, उसका प्रासुक शीतल जल अथवा प्रासुक उष्ण जल से उत्क्षालन अथवा प्रधावन करवाकर, उस पर किसी आलेपनजात से आलेपन अथवा विलेपन करवाकर, उसका तैल, घृत, वसा अथवा मक्खन से अभ्यंगन अथवा म्रक्षण करवाकर उसे किसी धूपजात से धूपित करवाती है अथवा प्रधूपित करवाती है और धूपित अथवा प्रधूपित करवाने वाली का अनुमोदन करती है। किमि-पदं कृमि-पदम् ३९. जा निग्गंथी निग्गंथस्स पालुकिमियं ___ या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य पायुकृमिकं वा वा कुच्छिकिमियं अण्णउत्थिएण वा कुक्षिकृमिकं वा अन्ययूथिकेन वा गारथिएण वा अंगुलीए अगारस्थितेन वा अंगुल्या निवेश्यणिवेसाविय-णिवेसावियणीहरावेति, निवेश्य निस्सारयति, निस्सारयन्तं वा णीहरावेंतं वा सातिज्जति॥ स्व दते। कृमि-पद ३९. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ के अपान की कृमि अथवा कुक्षि की कृमि को अंगुली डाल-डाल कर निकलवाती है अथवा निकलवाने वाली का अनुमोदन करती है। णह-सिहा-पदं नखशिखा-पदम् नखशिखा-पद ४०. जा निग्गंथी निग्गंथस्स दीहाओ या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य दीर्घाः ४०. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ णह-सिहाओ अण्णउत्थिएण वा नखशिखाः अन्ययूथिकेन वा से निर्ग्रन्थ की दीर्घ नखशिखा को कटवाती गारथिएण वा कप्पावेज्ज वा अगारस्थितेन वा कल्पयेद् वा है अथवा व्यवस्थित करवाती है और संठवावेज्ज वा, कप्पावेंतं वा संस्थापयेद् वा, कल्पयन्तं वा कटवाने अथवा व्यवस्थित करवाने वाली संठवावेंतं वा सातिज्जति॥ संस्थापयन्तं वा स्वदते। का अनुमोदन करती है। दीर्घरोम-पदम् दीर्घरोम-पद दीह-रोम-पदं ४१. जा निग्गंथी निग्गंथस्स दीहाइं जंघ-रोमाइं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा, कप्पावेंतं वा संठवावेंतं वा सातिज्जति॥ या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य दीर्घाणि ४१. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ जंघारोमाणि अन्ययूथिकेन वा से निर्ग्रन्थ की जंघाप्रदेश की दीर्घ रोमराजि अगारस्थितेन वा कल्पयेद् वा को कटवाती है अथवा व्यवस्थित करवाती संस्थापयेद् वा, कल्पयन्तं वा है और कटवाने अथवा व्यवस्थित करवाने संस्थापयन्तं वा स्वदते। वाली का अनुमोदन करती है। ४२. जा निग्गंथी निग्गंथस्स दीहाइं या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य दीर्घाणि ४२. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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