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________________ निसीहज्झयणं की हानि न हो। चूर्णिकार के अनुसार 'कोरने' की क्रिया से शुषिर सम्बन्धी दोष आते है। अतः इसमें लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।' पात्र पर खुदाई करके उसके मुख आदि को सुन्दर बनाते समय कुंथु आदि जीवों की विराधना तथा शस्त्र से चोट लग जाने पर शरीरविराधना भी संभव है। शब्द विमर्श णिक्कोरण - पात्र आदि के मुख का अपनयन करना। ११. सूत्र ३८, ३९ कोई गृहस्वामी निकटवर्ती गांव, खेत, खलिहान आदि में गया हुआ है अथवा रास्ते में सामने से आ रहा है। उससे अथवा किसी परिषद् में बैठा हुआ है, उसे बीच में उठाकर उससे पात्र मांगा जाए तो भद्र प्रकृतिवाला गृहस्थ सोचता है-'इन्हें पात्र की अत्यन्त आवश्यकता होगी, तभी ये इस प्रकार आकर मुझसे पात्र मांग रहे हैं। और ऐसा सोचकर वह बनवाकर, उधार लेकर अथवा खरीद कर भी भिक्षु को पात्र देता है। दूसरी ओर रूक्ष प्रकृति का गृहस्थ सोचता है - 'ये लोकव्यवहार भी नहीं जानते, न पूर्वापर का विचार करते हैं।' इस प्रकार रुष्ट होकर वह पात्र देने से इन्कार कर सकता है। अतः भिक्षु गृहस्वामी के घर जाकर पहले यह ज्ञात करे कि उसके पास पात्र है या नहीं। 'पात्र है' यह ज्ञात होने पर उसके घर जाकर विधिपूर्वक पात्र की याचना करे। बार-बार घर जाने पर भी १. निभा. भा. ३ चू. पृ. ४७२- तं झुसिरं ति काऊण चउलहुँ । २. व्ही. पू. ४०३ -कुंदराजहणा, सत्यमादिणा लंखिते आयविराहणा । ३. वही, पृ. ४७२ - मुहस्स अवणयणं णिक्कोरणं । ४. वही, गा. ४६७७ सचूर्णि ५. वही, गा. ४६७६ सचूर्णि ३०७ उद्देशक १४ : टिप्पण पात्र अथवा पात्र का स्वामी उपलब्ध न हो तो किस प्रकार यतनापूर्वक पात्र का अवभाषण करे - निशीथभाष्य में इसका विशद विवरण मिलता है।' शब्द विमर्श • ग्रामान्तर-निकटवर्ती गांव, अंतरपल्लि खेत आदि।" ग्रामपथान्तर -दो गांवों के बीच का मार्ग। चूर्णि में ग्रामान्तर एवं ग्रामपथान्तर के स्थान पर प्रतिग्राम और प्रतिपथ की व्याख्या मिलती है। ' १२. सूत्र ४०, ४१ मासकल्प प्रायोग्य अथवा वर्षांवास प्रायोग्य क्षेत्र को छोड़कर 'यहां अच्छे पात्र मिलेंगे' इस आशा से ऋतुबद्धकाल अथवा वर्षाकाल में रहना - पात्र की निश्रा से रहना है अथवा गृहस्थ को यह कहना हम पात्र के लिए यहां रह रहे हैं अथवा पात्र के निमित्त आए हैं - यह भी पात्र की निश्रा है। पात्र की निश्रा से कालातिक्रान्त रहने से नैत्यिकवास सम्बन्धी दोष आते हैं। कालातिकान्त नहीं रहे, तब भी आज्ञाभंग आदि दोष आते हैं। यदि पात्र के निमित्त रहना भी हो तो ग्लान वैयावृत्य, स्वाध्याय आदि किसी प्रशस्त आलम्बन के व्याज से रहे तथा पात्रविषयक अभिप्राय गृहस्थ को न जताए । " वही, गा. ४६७९, ४६८०, ४६८४, ४६८५ वही, गा. ४६७५ - गामंतर दोण्ह मज्झ खेत्तादी । वही, भा. ३, चू. पृ. ४७४ (गा. ४६७५ की चूर्णि ) वही पृ. ४७६ - अण्ण मासकप्पवासाजोग्गा वा खेत्ता मोत्तुं एत्थ पादे लभिस्सामो त्ति जे वसति, एत्थ पादे णिस्सा भवति । एयाए पादणिस्साए । १०. वही, गा. ४६८९ सचूर्णि । ६. ७. ८. ९.
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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