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________________ उद्देशक १४ : सूत्र ७-१३ वा - अहत्थच्छिण्णस्स च्छिण्णस्स अपाय अकण्णच्छिण्णस्स अणासच्छिण्णस्स अणोट्ठच्छिण्णस्स सक्कस्स- देति, देतं सातिज्जति ॥ वा ७. जे भिक्खू अइरेगं पडिग्गहं खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा थेरगस्स वा थेरियाए वा - हत्थच्छिण्णस्स पायच्छिण्णस्स कण्णच्छिण्णस्स णासच्छिण्णस्स ओच्छिण असक्कस्स-न देति न देंतं वा सातिज्जति ।। ८. जे भिक्खू पडिग्गहं अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं धरेति, धरेंतं वा सातिज्जति ॥ ९. जे भिक्खू पडिग्गहं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं न धरेति, न धरेंतं वा सातिज्जति ।। १०. जे भिक्खू वण्णमंतं पडिग्गहं विवण्णं करेति, करेंतं वा सातिज्जति ।। ११. जे भिक्खू विवण्णं पडिग्गहं वण्णमंतं करेति, करेंतं वा सातिज्जति ॥ १२. जे भिक्खू 'णो णवए मे पडिग्गहे लद्धे' त्ति कट्ट सीओदग - वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा सातिज्जति ॥ १३. जे भिक्खू 'णो णवए मे पडिग्ग लद्धे' त्ति कट्टु बहुदेवसिएण २९८ वा - अहस्तच्छिन्नाय अपादच्छिन्नाय अकर्णच्छिन्नाय अनासाच्छिन्नाय अनोष्ठच्छिन्नाय शक्ताय - ददाति ददतं वा स्वदते । यो भिक्षुः अतिरेकं प्रतिग्रहं क्षुद्रकाय वा क्षुद्रिकायै वा स्थविराय वा स्थविरायै वा - हस्तच्छिन्नाय पादच्छिन्न कर्णच्छिन्नाय नासाच्छिन्नाय ओष्ठच्छिन्नाय अशक्ताय न ददाति, न ददतं वा स्वदते । यो भिक्षुः प्रतिग्रहम् अनलम् अस्थिरम् अध्रुवम् अधारणीयं धरति, धरन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः प्रतिग्रहम् अलं स्थिरं ध्रुवं धारणीयं न धरति, न धरन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः वर्णवन्तं प्रतिग्रहं विवर्णं करोति, कुर्वन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः विवर्णं प्रतिग्रहं वर्णवन्तं करोति, कुर्वन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः 'नो नवकः मया प्रतिग्रहः लब्धः' इति कृत्वा शीतोदकविकृतेन वा उष्णोदकविकृतेन वा उत्क्षालयेद् वा प्रधावेद् वा, उत्क्षालयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वते । यो भिक्षुः 'नो नवकः मया प्रतिग्रहः लब्धः' इति कृत्वा बहुदैव निसीहज्झयणं है, अकर्णच्छिन्न है, अनासिकाच्छिन्न है, अनोष्ठच्छिन्न है, सशक्त है - उसे जो भिक्षु अतिरिक्त पात्र देता है अथवा देने वाले का अनुमोदन करता है। ७. क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका, स्थविर अथवा स्थविरा --जो हस्तच्छिन्न है, पादच्छिन्न है, कर्णच्छिन्न है, नासिकाच्छिन्न है, ओष्ठच्छिन्न है, अशक्त है उसे जो भिक्षु अतिरिक्त पात्र नहीं देता अथवा नहीं देने वाले का अनुमोदन करता है। ८. जो भिक्षु अनल (अपर्याप्त), अस्थिर, अध्रुव, अधारणीय (रखने के अयोग्य) पात्र को धारण करता है अथवा धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। ९. जो भिक्षु पर्याप्त, स्थिर, ध्रुव, धारणीय पात्र को धारण नहीं करता अथवा धारण न करने वाले का अनुमोदन करता है। १०. जो भिक्षु वर्णवान पात्र को विवर्ण बनाता है अथवा बनाने वाले का अनुमोदन करता है । ११. जो भिक्षु विवर्ण पात्र को वर्णवान बनाता है अथवा बनाने वाले का अनुमोदन करता है । " १२. 'मुझे नवीन पात्र प्राप्त नहीं हुआ' - ऐसा सोचकर जो भिक्षु प्रासुक शीतल जल से अथवा प्रासुक उष्ण जल से पात्र का उत्क्षालन करता है अथवा प्रधावन करता है और उत्क्षालन अथवा प्रधावन करने वाले अनुमोदन करता है। १३. 'मुझे नवीन पात्र प्राप्त नहीं हुआ ऐसा सोचकर जो भिक्षु बहुदैवसिक प्रासुक
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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