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________________ आमुख २७४ निसीहज्झणं अपनी कुरूपता का दर्शन क्षिप्तचित्तता, हीनभावना, बाकुशत्व आदि का हेतु बन सकता है । अतः प्रस्तुत आलापक में देहप्रलोकन का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। भिक्षु पूर्ण अहिंसा का पालन करने के लिए गृहस्थ के घर में निष्पन्न सहजसिद्ध आहार को माधुकरी वृत्ति से ग्र करता है । एषणा समिति के मुख्यतः तीन भेद हो जाते हैं - गवेषणा, ग्रहणैषणा एवं परिभोगैषणा । धात्रीपिण्ड, दूतीपिण्ड, निमित्तपिण्ड, आजीवकपिण्ड आदि सदोष एषणाओं का सम्बन्ध ग्रहणैषणा के साथ है। यह विषय मुख्यतः पिण्डनिर्युक्ति का है । पिण्डनिर्युक्ति के समान निशीथभाष्य एवं चूर्णि में भी इन दोषों के प्रकारों एवं इनसे होने वाले दोषों की सोदाहरण विवेचना के साथ इनके अपवादों का विस्तृत वर्णन मिलता है।' सारा प्रकरण अनेक दृष्टियों से मननीय एवं विचारणीय है। बारम्बार दोष सेवन करने वाले दुश्शील भिक्षु सद्भिक्षु नहीं होते। उनकी प्रशंसा करना, उन्हें वन्दना - नमस्कार करना, बार-बार उनका संसर्ग करना उनकी असंविग्नता एवं दोषाचरण को प्रोत्साहित करना है। प्रस्तुत उद्देशक में पार्श्वस्थ, अवसन्न आदि की वन्दना एवं प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त कथन किया गया है। निशीथभाष्य एवं उसकी चूर्णि में इन असंविग्न भिक्षुओं के दोषों, प्रकारों एवं इनकी वन्दना आदि के विषय में मननीय अपवादों की संक्षिप्त चर्चा की गई है। १. निभा. गा. ४३७५-४४७२ चू. पृ. ४०३- ४२६
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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