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________________ निसीहज्झयणं २६३ रहता है। अतः अहिसा की दृष्टि से उसे अग्राह्य माना गया है। " प्रस्तुत सूत्र में भिक्षु के लिए सलोम चर्म के ग्रहण का प्रायश्चित प्रशप्त है। कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में निर्ग्रन्थों के लिए सलोम चर्म को ग्रहण करने का निषेध किया गया है। साथ ही निर्ग्रन्थों के लिए निर्लोमचर्म के ग्रहण की अनुज्ञा दी गई है। कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में प्रज्ञप्त निषेध एवं विधान का प्रयोजन ब्रह्मचर्य सुरक्षा प्रतीत होता है। अहिंसा की दृष्टि से सूत्रकार ने निर्ग्रन्थों को एक रात के लिए प्रातिहारिक रूप में परिभुक्त चर्म को ग्रहण करने की अनुज्ञा दी है। " विस्तार हेतु द्रष्टव्य-कप्पो ३/३,४ के टिप्पण शब्द विमर्श अहि- उपयोग करना। चूर्णिकार के अनुसार यहां इसका अर्थ है- 'यह मेरा है' इस रूप में ग्रहण करना । ' ५. सूत्र ६ गृहस्थ के वस्त्र से आच्छादित पीढ़े पर बैठने से आत्मविराधना एवं संयमविराधना के दोष की संभावना रहती है। कदाचित् कोई गृहस्थ प्रत्यनीकता, प्रवंचना अथवा प्रमाद के कारण एक अथवा दो पैरों से रहित या जीर्णशीर्ण पीढ़े पर वस्त्र बिछा दे और भिक्षु बिना प्रतिलेखना के उस पर बैठ जाए तो वह गिर सकता है, जिससे प्रवचन की अप्रभावना एवं साधु की निन्दा हो सकती है। साधु के उठने के बाद गृहस्थ उस वस्त्र को धोए, साफ करे तो पश्चात्कर्म दोष लगता है। अतः जिस पर गृहस्थ का वस्त्र बिछा हो, ऐसे अशुषिर आसन पर से उस वस्त्र को हटाकर प्रतिलेखनापूर्वक ही भिक्षु उसका उपयोग करे।" ६. सूत्र ७ भिक्षु गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक से स्वयं का उत्तरीय वस्त्र सिलवाता है तो उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।" यदि वह किसी साध्वी का उत्तरीय सिलवाता है तो पूर्वोक्त दोषों के अतिरिक्त शंका, वशीकरण आदि दोष भी संभव हैं। अतः इसमें लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १. निभा. गा. ३९९८ २. कप्पो ३/३ ३. वही, ३/४ ४. वही से वि य परिभुले अपडिहारिए... एगराइए.....। ५. निभा. भा. ३ चू. पृ. ३२० -अहिट्ठेइ णाम 'ममेयं' त्ति जो गिण्हइ । ६. वही, गा. ४०२२, ४०२३ ( सचूर्णि ) ७. वही, गा. ४०२५ (सचूर्णि ) ८. निसीह ५/१२ ९. निभा. गा. ४०२८ (सचूर्णि ) १०. वही, भा. ३ चू. पू. ३२८ - वणस्सइकायमेत्तं वज्जित्ता सेसेगेंदियकायाणं असंखेज्जाणं जीवसरीराणं समुदयसमितिसमागमेणं कलमेत्तं लब्भति । ७. सूत्र ८, ९ प्रस्तुत सूत्रद्वयी में पांच स्थावरकार्यों के अल्पमात्र भी समारम्भ का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है । षड्जीवनिकाय जैनदर्शन की विशेष प्रतिपत्ति है। जैन दर्शन के अनुसार असंख्य पृथिवीकायिक जीवों के शरीरों का समूह है - एक चने जितनी सचेतन पृथिवी । वनस्पतिकाय को छोड़कर शेष तीनों (अप्, तेजस, वायु) जीवनिकायों के विषय में भी यही तथ्य स्वीकृत है। " वनस्पतिकाय में एक, असंख्य अथवा अनन्त जीवों के शरीर के समूह से चने जितनी वनस्पति निष्पन्न होती है। " उद्देशक १२ : टिप्पण भिक्षु प्राणातिपात से सर्वधा विरत होता है। अतः उसे गोवरी, विचार-भूमि आदि के लिए गमनागमन तथा उपाश्रय में उपधि आदि के विषय में पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए, ताकि उसके द्वारा किसी जीव को विराधना न हो। सूत्र में 'कलमाय' पद प्रयुक्त हुआ है। कल शब्द का अर्थ है - चना | १२ चूर्णिकार के अनुसार यह प्रमाण कठिन पृथिवी, तेजस्, वायु एवं वनस्पतिकाय के विषय में है, अप्काय के विषय में इसे बिन्दुप्रमाण मानना चाहिए।" ८. सूत्र १० सचित्त वृक्ष के तीन प्रकार होते हैं १. संख्यातजीवी - ताड़ आदि । २. असंख्यातजीवी -आम्र आदि । ३. अनन्तजीवी थूहर आदि। १४ भाष्यकार के अनुसार प्रस्तुत सूत्र का कथन प्रथम दो के विषय में है।" अनन्तकायिक वृक्ष पर चढ़ने से गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है" जो प्रस्तुत उद्देशक का विषय नहीं है। वृक्षारोहण करने से वनस्पतिकाय की तथा गिर पड़ने पर अन्य जीवनकार्यों की विराधना होती है पड़ने से आत्मविराधना, प्रवचन की अप्रभावना आदि दोष भी संभव हैं। " आयारचूला में भी श्वापद आदि के भय से वृक्षारोहण का निषेध किया गया है।" १९. वही- एगस्स पत्तेयवणस्सतिकायस्स असंखेज्जाण वा कलधन्नप्पमाणमेत्तं सरीरं भवति । १२. वही, पृ. ३२७ - कलो त्ति चणओ, तप्पमाणमेत्तं । १३. वही एवं कढिणाउक्काए तेउवाऊपत्तेयवणस्सतिसु । दवे पुण आक्काए बिंदुमित्तं वाक्काते..... वत्धिपूरणे सम्मति । १४. वही, पृ. ३२८ संखेज्जजीवा तालादी असंखेज्जजीवा अंबादी, अनंतजीवा थोहरादी । १५. वही, गा. ४०३९ १६. वही, भा. ३ चू. पृ. ३२८-अणंतेसु चउगुरुगा । १७. वही, गा. ४०४० १८. आचू. ३ / ५९ - णो रुक्खसि दुरुहेज्जा । ·
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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