SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (28) छेदसूत्रों में निसीहज्झयणं का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस विषय में कुछ हेतु ये हैं १. प्रस्तुत आगम आयारो की पांचवीं चूला (परिशिष्ट) है। चूर्णिकार के अनुसार शेष छेदसूत्र अंगबाह्य हैं जबकि निसीहज्झयणं अंग के अंतर्गत। . २. ववहारो में प्रस्तुत आगम को मानदण्ड के रूप में प्रस्तुत किया गया है। तीन वर्ष की पर्याय वाला बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ भिक्षु जो आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल, संग्रहकुशल, उपग्रहकुशल, अक्षताचार, अशबलाचार, अभिन्नाचार एवं असंक्लिष्टाचार हो और कम से कम आचारप्रकल्प का धारक हो तो उसे उपाध्याय पद दिया जा सकता है। ३. जिस भिक्षु ने आचारप्रकल्प का देशतः (सूत्र रूप से) अध्ययन किया हो और शेष (अर्थ रूप से) अध्ययन करने का संकल्प हो और उसका अध्ययन करले, उसे आचार्य अथवा उपाध्याय का आकस्मिक देहावसान होने पर आचार्य-उपाध्याय पद दिया जा सकता है। यदि संकल्पित होने पर भी वह आचारप्रकल्प के अवशेष भाग का अध्ययन नहीं करता तो उसे आचार्य-उपाध्याय पद नहीं दिया जा सकता। ४. निसीहज्झयणं का अधिकारी वही व्यक्ति माना गया है, जो अवस्था एवं अवस्थाजनित परिपक्वता से युक्त हो। जो भिक्षु अव्यंजनजात हो, उपस्थ रोमराजि से रहित हो, उसे आचारप्रकल्प नहीं पढ़ाया जा सकता। जो व्यंजनजात हो, उसी को वह पढ़ाया जा सकता है। परिपक्व बुद्धिवाला भी दीक्षित होते ही आचारप्रकल्प पढ़ने का अधिकारी नहीं होता। तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय के बाद ही इसे पढ़ा जा सकता है। यह समस्त विधान प्रस्तुत आगम के गांभीर्य की ओर महत्त्वपूर्ण संकेत है। ५. निसीहज्झयणं का ज्ञान पदस्थ मुनि के लिए अत्यन्त अपेक्षित माना गया है। इस ज्ञान को प्राप्त कर लेने के बाद साधु-साध्वी भुला नहीं सकती थीं। यदि कोई तरुण साधु अथवा साध्वी इसे भुला देती तो उसे उसका कारण पूछा जाता। यदि आबाधा के कारण इसकी विस्मृति होती है तो पुनः स्मरण करने पर उन्हें आचार्य-उपाध्यायादि पद दिए जा सकते हैं। यदि आचारप्रकल्प की विस्मृति प्रमाद के कारण हुई हो तो उस साधु अथवा साध्वी को यावज्जीवन कोई भी पद नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार स्वतन्त्र विहार के लिए भी प्रकल्पधर होना अनिवार्य माना गया है। ६. आचारप्रकल्प की विस्मृति नहीं होनी चाहिए। इसलिए स्थविर साधु-साध्वियों को आचारप्रकल्प की अव्यवच्छित्ति के लिए बैठे, सोते किसी भी अवस्था में उसकी परिवर्तना एवं प्रतिपृच्छा की अनुज्ञा दी गई है। ७. प्रत्यक्षज्ञानी के अभाव में यथार्थ प्रायश्चित्त कैसे दिया जा सकता है-यह प्रश्न प्राचीन काल में बहुत चर्चा गया था। निशीथभाष्य एवं उसकी चूर्णि में उसकी चर्चा उपलब्ध होती है। प्रश्न का आधार यह था कि केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नवपूर्वी ये विच्छिन्न हो गए हैं। इनके साथ-साथ प्रायश्चित्त भी विच्छिन्न हो गया है। इसके समाधान में कहा गया तीर्थंकर, पूर्वधर आदि आगमपुरुष नहीं हैं किन्तु आज भी प्रत्यक्ष ज्ञानी द्वारा पूर्वश्रुत में निबद्ध प्रायश्चित्त-विधि आचारप्रकल्प में उद्धृत है इसलिए आचारप्रकल्पधर प्रायश्चित्त देने का अधिकारी है। यदि निसीहज्झयणं का सूत्र और अर्थ उभय का धारक न हो तो केवल अर्थधर भी प्रायश्चित्त देने का अधिकारी है। इस प्रकार आलोचना एवं प्रायश्चित्त की दृष्टि से प्रस्तुत आगम का विशेष महत्त्व है। ८. छेद-सूत्रों को उत्तम श्रुत कहा गया है क्योंकि उसमें प्रायश्चित्त सहित विधि का ज्ञापन हुआ है। प्रायश्चित्त से चारित्र विशुद्धि निभा. ४ चू. पृ. २५४-कालियसुर्य आयारादि एक्कारस अंगा, ८. निभा. ४ चू. पृ. ४०३-तित्थकरादिणो चोद्दसपुव्वादिया य जुत्तं तत्थ पकप्पो आयारगतो। जे पुण अंगबाहिरा छेयसुयज्झयणा सोहिकरा, जम्हा ते जाणंति जेण विसुज्झइ त्ति, तेसु वोच्छिण्णेसु ते.... सोही वि वोच्छिण्णा? २. वव. ३/३ ९. वही, गा. ६६७४ ३. वही, ३/१० १०. वही, गा. ६६७६ ४. वही, १०/२३,२४ ११. वही, भा. ४ चू.पृ. ४०३-इमं पकप्पज्झयणं चोद्दसपुव्वीहिं ५. वही, १०/२५ णिबद्धं, तं जो गणपरियट्टी सुतत्थे धरेति सो वि सोधिकरो भवति । ६. वही, ५/१५,१६ अहवा-चोद्दसपुव्वेहिंतो णिज्जूहिओ एस पकप्पो णिबद्धो, तद्धारी ७. वही, ५/१८ सोऽधिकारीत्यर्थः।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy