SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८ उद्देशक १० : सूत्र २४-२६ णच्चा संभुंजति, संभुंजंतं वा सातिज्जति॥ संभुङ्क्ते, संभुञ्जानं वा स्वदते। निसीहज्झयणं को सुनकर जानकर उसके साथ संभोज रखता है अथवा संभोज रखने वाले का अनुमोदन करता है। २४. जे भिक्खू अणुग्धाइय-संकप्पं यो भिक्षुः अनुद्घातिकसंकल्पं श्रुत्वा २४. जो भिक्षु अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के सोच्चा णच्चा संभुंजति, संभुजंतं वा ज्ञात्वा संभुङ्क्ते, संभुञ्जानं वा स्वदते । संकल्प को सुनकर जानकर उसके साथ सातिज्जति॥ संभोज रखता है अथवा संभोज रखने वाले का अनुमोदन करता है।३ राई-भोयण-पदं रात्रिभोजन-पदम् रात्रिभोजन-पद २५. जे भिक्खू उग्गयवित्तीए यो भिक्षुः उद्गतवृत्तिकः अनस्त- २५. जो भिक्षु उद्गतवृत्तिक-सूर्योदय हो चुका अणत्थमिय-मणसंकप्पे संथडिए मितमनःसंकल्पः 'संथडिए' (संस्तृतः) है, इस वृत्ति वाला तथा अनस्तमितमनः णिव्वितिगिच्छा-समावण्णे णं निर्विचिकित्सासमापन्नः आत्मा अशनं वा संकल्प-सूर्यास्त नहीं हुआ है, इस मानसिक अप्पाणे णं असणं वा पाणं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य संकल्प वाला, समर्थ तथा सूर्योदय-सूर्यास्त खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता भुङ्क्ते, भुञ्जानं वा स्वदते । के विषय में असंदिग्ध आत्मा वाला है, वह भुंजति, भुजंतं वा सातिज्जति। अशन, पान, खाद्य अथवा स्वाद्य को ग्रहण कर भोग करता है अथवा भोग करने वाले का अनुमोदन करता है। अह पुण एवं जाणेज्जा-अणुग्गए अथ पुनरेवं जानीयात्-अनुद्गतः सूर्यः बाद में वह इस प्रकार जाने-सूर्य उदित नहीं सूरिए अत्थमिए वा से जं च मुहे जं अस्तमितो वा, तस्य यच्च मुखे यच्च पाणी हुआ है अथवा अस्त हो चुका है, तो वह च पाणिसि जं च पडिग्गहंसि तं यच्च प्रतिग्रहे तद् विविञ्चन् विशोधयन् जो मुंह में है, जो हाथ में है तथा जो पात्र में विगिंचेमाणे विसोहेमाणे नातिक्रामति, यस्तद्भुङ्क्ते, भुञ्जानं वा है, उसका विवेचन-परिष्ठापन करता हुआ णाइक्कमइ, जो तंभुंजति, भुजंतं वा स्वदते । तथा विशोधन-मुख आदि की शुद्धि करता सातिज्जति॥ हुआ विधि का अतिक्रमण नहीं करता। किन्तु जो उसका भोग करता है अथवा भोग करने वाले का अनुमोदन करता है। २६. जे भिक्खू उग्गयवित्तीए यो भिक्षुः उद्गतवृत्तिकः अनस्त- अणथमिय-मणसंकप्पे संथडिए मितमनःसंकल्पः 'संथडिए' (संस्तृतः) वितिगिच्छा-समावण्णे णं अप्पाणे विचिकित्सासमापन्नः आत्मा अशनं वा णं असणं वा पाणं वा खाइमं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य साइमं वा पडिग्गाहेत्ता भुंजति, भुंजंतं भुङ्क्ते, भुजानं वा स्वदते । वा सातिज्जति। २६. जो भिक्षु उद्गतवृत्तिक–सूर्योदय हो चुका है, इस वृत्ति वाला तथा अनस्तमितमनः संकल्प-सूर्यास्त नहीं हुआ है, इस मानसिक संकल्प वाला, समर्थ तथा सूर्योदय-सूर्यास्त के विषय में संदिग्ध आत्मा वाला है, वह अशन, पान, खाद्य अथवा स्वाद्य को ग्रहण कर भोग करता है अथवा भोग करने वाले का अनुमोदन करता है। बाद में वह इस प्रकार जाने सूर्य उदित नहीं हुआ है अथवा अस्त हो चुका है, तो वह जो मुंह में है, जो हाथ में है तथा जो पात्र में है, उसका विवेचन-परिष्ठापन करता हुआ अह पुण एवं जाणेज्जा-अणुग्गए अथ पुनरेवं जानीयात्-अनुद्गतः सूर्यः सूरिए अत्थमिए वा से जं च मुहे जं अस्तमितो वा, तस्य यच्च मुखे यच्च पाणी च पाणिसि जं च पडिग्गहंसि तं यच्च प्रतिग्रहे तद् विविज्चन् विशोधयन् विगिंचेमाणे विसोहेमाणे नातिक्रामति, यस्त भुङ्क्ते, भुञ्जानं वा
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy